रमणिका गुप्ता का ‘सीता’ उपन्यास : आदिवासी नारी का संघर्ष | ‘Seeta’ Upnayas By : Ramanika Gupta

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जंगल में जन्म और जंगल में ही अपना सम्पूर्ण जीवन बिता देने वाले और जो आदिकाल से जंगल में ही रहते हों ,जंगल से प्राप्त वस्तुओं पर ही जिनका जीवन निर्भर हों ऐसे लोग आदिवासी कहे जाते हैं | प्रकृति की गोद में पले –बढ़े इन लोगों का जीवन बेहद संघर्षों से भरा होता है | खासतौर पर आदिवासी नारियों का जीवन तो और अधिक कष्ट पूर्ण होता है |

रमणिका गुप्ता का ‘सीता’ उपन्यास सन 1996  में प्रकाशित हुआ था | इस उपन्यास में कामगार आदिवासी नारियों के संघर्ष, उनकी पीड़ा एवं आदिवासी समाज में  नारी की स्थिति आदि का चित्रण किया गया है | ‘सीता’ उपन्यास की नायिका पौराणिक युगीन सीता से विपरीत सोच रखती है | सीता आधुनिक युग की संघर्षशील नारी है ,जो अत्याचार ,दमन के खिलाफ आवाज उठाती है, तथा अपना हक़ छीनने वालों से दो –दो हाथ तक करने को तत्पर रहती है |

उपन्यास का नाम (Novel Name)सीता (Seeta)
लेखक (Author)रमणिका गुप्ता (Ramanika Gupta)
भाषा (Language)हिन्दी (Hindi)
प्रकार (Type)आदिवासी विमर्श (Aadivasi Vimarsh)
प्रकाशन वर्ष (Year of Publication)1996

इस उपन्यास की आधुनिक युगीन सीता मात्र अपने लिए ही नहीं वरन उन समस्त आदिवासी नारियों के शोषण के खिलाफ आवाज उठती है, जो वर्षों से शोषित हैं , पीड़ित हैं | सीता अपने माँ –बाप के साथ केदला खदान में खटने के लिए जाती है | मेहनतकशऔर आत्मविश्वास से भरी सीता पत्येक काम में सबसे आगे रहती है |

आदिवासी समाज में अधिकतर महिलाये आत्मनिर्भर होती हैं और घर चलाने के लिए स्वयं भी काम करती हैं |  विवाह और दो बच्चों की माँ बनी सीता भी पति का हाथ बटाती है ,अपनी छोटी बेटी को पीठ पर बांधे खदान में काम करती है | हालांकि यह उसकी विवशता थी | उसका पति अक्सर दारू पीकर घर में ही पड़ा रहता था , जिससे घर सँभालने की पूरी जिम्मेदारी सीता को ही उठानी पड़ती है | फिर भी वह खुश रहती है |

जिस पति पर वह अपना सब कुछ निछावर कर देती है यहाँ तक कि खदान में पति के हिस्से का काम भी खुद कर लेती है और स्वयं के बल पर अपना पूरा परिवार चलाती है, किंतु वही पति उसे धोखा देता है | जब कभी उसका पति अपने गाँव जाता कई महीनों तक वापस नहीं लौटता है | फिर भी वह कुछ नहीं बोलती किंतु एक बार उसे पता चलता है कि उसके पति ने उसे धोखा देकर किसी अन्य लड़की से विवाह कर लिया है और उसे लेकर गाँव से आसाम चला गया है | सीता पति से मिले इस धोखे से बहुत आहत होती है | किंतु अपने बच्चों की खातिर वह खदान में काम करने जाती है | अपनी सूझबूझ ,समझदारी और हिम्मत के बल पर ही सीता कोयला खदान की यूनियन में भी शामिल हो जाती है |  

वह अपने और अपने जैसे अनेक गरीब मजदूरों के लिए आन्दोलन में जुड़ती है | खदान में मजदूरों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठाती है | वह स्थायी मजदूरों की तरफ से केजुअल ट्रक लोडरों की बहाली के लिए लड़ती है | ऐसे में एक बार जब मैनेजर साहब खदान में ट्रक लदवाने पहुचतें हैं तब सीता टांगी लेकर खड़ी हो जाती है और कहती है  –

“ चल, भडुए, ऑफिस में बैठ जाके ! दखल दिया तो मुंडी काट लेंगे ! हमर पेट पर लात मत मार , नहीं तो रोवे वाला भी न मिली !”

रमणिका गुप्ता -सीता मौसी, पृष्ठ 45

सीता मात्र मजदूरों के हक़ की लड़ाई ही नहीं लड़ती बल्कि जिन मजदूरों की बहाली हो जाती है वे यदि अन्य बेरोजगार मजदूरों के रोजगार की लड़ाई में साथ नहीं देते तो, उन्हें भी खरीखोटी सुनती है | जिस यासीन मियां के साथ बड़े विश्वास और पूरी बिरादरी के खिलाफ जा कर उसने विवाह किया था ,उसी ने जब सीता को धोका दिया और अपनी जाति की लड़की से निकाह कर लिया तब एक बार फिर से मर्द जाति के प्रति सीता का विश्वास टूट जाता है | उसे नफरत हो जाती  है मर्द जात से | फिर भी मजबूरीवश वह यासीन के साथ रहती है और अपनी सारी कमाई यासीन को सौप देती है | किंतु जब सीता पुत्र को जन्म देती है तब यासीन और उसकी बीवी सीता और उसके बेटे को जहर खिला जान से मारने का प्रयास करते हैं ताकि यासीन की जमीन –जायदाद में से सीता के बेटे को हिस्सा ना मिल सके | खाने में जहर होने का भेद खुलने पर वह यासीन को गालियां देती हुई कहती है –

साले भडुए, दाढ़ी-जार ..जा , अपनी जोरू को ले जा ! जा साले हमर घर से बहार !.. फिर पास पड़ा जूता उठाकर तड़ातड़ चार –पांच जूता यासीन मियां के सर पर जड़ दिया और फिर यासीन मियां को चबूतरे पर से उठा कर नीचे पटक दिया |”

रमणिका गुप्ता -सीता मौसी, पृष्ठ 58-59

सीता आधुनिक सोच रखती हैवो उन नारियों की तरह नहीं है जो पति को परमेश्वर मान कर उसके पत्येक अत्याचार , अन्याय और शोषण को मूक बन सहती रहे | सीता जब यासीन द्वारा मिले धोखे का बदला लेने का प्रण करती है तब उसे पतिपरायण सीता जी की दुहाई दी जाती है | तब वह अपना आपा खो बैठती है और कहती है –

साले हमरा रामायण पढ़ाए है | उ सारे के राम कहे है जो दूसरी औरत बनाय लेले ! रामजी तो दूसर ब्याह नाय करले | पर जायदे !हम ऊ सीताजी नाय है,जो बन में चल जायब | हम तो एही साले को बन में भेज देब |”

रमणिका गुप्ता -सीता मौसी, पृष्ठ 59-60

सीता न केवल अपने लिए बल्कि उन सभी आदिवासी नारियों के लिए लड़ती है जिन्हें बड़े लोग अपनी शरीरि भूख मिटने का साधन मान उनका शोषण करते है वे ना तो ऐसी स्त्रियों को  अपनी पत्नी का अधिकार देते हैं ना ही अपनी सम्पति में से हिस्सा | आदिवासी स्त्रियो का किसी वस्तु की तरह उपयोग करने वाले लोग ऐसी औरतो को रखनी कहकर उनका  अपमान करते हैं | भगीरथ बाबू जब सीता को रखनी कहते हैं तब सीता उन्हें मार डाकने तक के लिए उतारू हो जाती  और उनके दोगले चरित्र का पर्दाफास करती हुई कहती है –

“ ठहर साले रखनी वाले दोगले ! घर पर जोरू रखते हो ,कोलरी में रखनी | दोनों हाथ में लड्डू ! सब रखानियों की औलाद को गछ्वा कर जैदाद में हिस्सा ना दिलवाय दिया तो हमर नाम सीता नाय ! एक –एक की मुंडी काट दूंगी ! तब मज़ा आएगा ‘रखनी’ रखने का |”

रमणिका गुप्ता -सीता मौसी, पृष्ठ 61

यूनियन का सदस्य बनने पर सीता स्वंय निर्णय करने लगती है | अच्छा –बुरा समझने लगती है | वह समझने लगी थी कि गुलामी क्या होती है ,सहते रहने से कोई फायदा नहीं होता ,अपने हक़ की लड़ाई स्वयं लड़नी पड़ती है तथा दमन , शोषण और अत्याचार करने वालों के खिलाफ लड़कर ही उनसे जीता जा सकता है |

यूनियन में उसकी धाक जमने से अधिकतर लोग उससे डरने लगे थे | वह ना तो युनियन के सदस्यों से डरती है नाही मैनेजर या पुलिस से | जिससे सभी ने मिल कर उसपर प्रतिबन्ध लगाना शुरू कर दिया था | किंतु सीता ने अपने बल पर जीना सीख लिया था, उसे स्वीकार नहीं थी किसी की गुलामी | जैसा कि अन्य आदिवासी महिलाओं के साथ होता था कि अकेली खदान में काम के लिए जाने वाली महिलाओं का प्रायः शोषण ही होता था अतः सीता उन सभी को संगठित कर शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रेरित करती है | वह सभी औरतों को समझाती है कि अपना हक़ लड़कर ही पाया जा सकता है | सीता को विश्वास है कि –

“ एक दिन उसका ही नहीं, उन सभी का आएगा जो अभी अलग –अलग ,अकेले –अकेले ,जाने कहाँ –कहाँ ,किस-किससे ,कैसे लड़ रही हैं और बनती जा रही हैं एक जमात ,एक कतार ,एक पाँत ,एक श्रृंखला ,एक कड़ी |”

रमणिका गुप्ता -सीता मौसी, पृष्ठ. 92

सीता का संघर्ष है उन समस्त लोगों के खिलाफ जो औरतों को पैर की जूती समझते हैं, जो औरतों का मानसिक और शारीरिक शोषण करना अपना अधिकार समझ बैठें हैं | उपन्यास में आदिवासी नारी के संघर्ष का यथार्थ चित्रण किया गया है | इस उपन्यास की नारी पात्र यातनाएं सहकर भी अंततः अपना अधिकार हाशिल करती हैं |


Dr. Anu Pandey

Assistant Professor (Hindi) Phd (Hindi), GSET, MEd., MPhil. 4 Books as Author, 1 as Editor, More than 30 Research papers published.

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