पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन | Purush Tan Mein fansa Mera Nari Man By : Manobi Bandyopadhyay

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पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन उपन्यास की निम्न पंक्तियाँ अपने-आप में वह सब कुछ बयां कर देती हैं जो पहले अपनी अपूर्णता से पूर्णता की तलास और फिर उसकी प्राप्ति, अर्थात सोमनाथ से मनोबी बनने के अन्तराल में इस किरदार को भावनात्मक द्वंद्व तथा असीम उत्कंठा के साथ तय करना पड़ा होगा |

“सोमनाथ मुझे हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया और मनोबी का जन्म हुआ था …….आखिरकार, मेरी आत्मा को अपनी देह मिल गयी थी और मेरे भीतर का वह  अधूरापन ख़त्म हुआ जो जन्म से ही मेरे साथ बना हुआ था |”

मनोबी बंदोपाध्याय – पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

परन्तु इस प्रकार की सिद्धि बिना संघर्ष के प्राप्त नहीं होती | इसके पूर्व की हम चर्चा करें लौह से भी अधिक कठोर इस पुरुष काया में कैद एक स्त्री के आत्मा की कहानी और उसकी आजादी के संघर्ष की, बात कर लेते हैं हमारे समाज के और इनके जैसे लोगों के स्थिति की जो न तो इनकी तरह इस मुकाम तक पहुंच पाने के लिहाज से खुशकिस्मत हैं और न ही उनमें संघर्ष का वह साहस है | इनमे से अधिकतर तो हमारे समाज की जटिल मान्यताओं, उनकी उपेक्षाओं और उनके द्वारा निर्धारित की गयी जीवन शैली में उलझ कर या तो मिट जाते हैं या हथियार डाल, प्रत्यर्पण करते हुए उसे अपनी नियति मान अपना लेते हैं |

उपन्यास का नाम (Novel Name)पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन (Purush Tan Mein fansa Mera Nari Man)
लेखक (Author)मनोबी बंद्योपाध्याय (Manobi Bandyopadhyay)
भाषा (Language)हिन्दी (Hindi)
प्रकार (Type)किन्नर विमर्श (Kinnar Vimarsh)
प्रकाशन वर्ष (Year of Publication)2018

आज भी हमारा समाज ऐसे लोगों को अपने मध्य बर्दास्त नहीं कर पा रहा है | हमारा समाज आज भी इतना परिपक्व नही हो पाया है कि उन्हें अपने मध्य किसी आम जीव की तरह स्थान दे पाये | इस समुदाय को लेकर फैलाई गयीं अफवाहें, भय आदि के साथ-साथ उनका समाज से दूरी बनाये रखना भी उतना ही जिम्मेदार है | हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमने अपने समाज में स्त्री एवं पुरुष के अलावा किसी तीसरे विकल्प के उपस्थिति की परिकल्पना ही नहीं की | अब जो सोच सदियों से हमारे मानस में घर कर चुकी हो, उसे इतनी सहजता से बदला भी तो नहीं जा सकता | समाज ऐसे लोगों को अपने मध्य सहज स्वीकार्यता न प्रदान करे, अथवा इस कार्य के लिए समय की मांग करे, यह एक अलग बिंदु है, किन्तु मानवीय गुणों का परित्याग करता हुआ जब वह इस समुदाय के प्रति अमानवीय व्यवहार पर उतर आता है, तो इसका कठोरता से भर्त्सना करना अत्यंत ही अनिवार्य हो जाता है | परिस्थिति यह है कि ‘हिजड़ा’ शब्द को बतौर गाली प्रयुक्त किया जाने लगा है |

उपेक्षित सामाजिक सोच के अतिरिक्त हमारी कानून व्यवस्था में इस समुदाय सम्बन्धी कायदों का अभाव भी काफी हद तक इनकी परिस्थिति के लिए जवाबदार है | आजादी के इतने वर्षों के पश्चात भी हमारी व्यवस्था में इनके हितों के संरक्षण हेतु कोई मुकम्मल कदम नहीं उठाये गए हैं | ये बात अलग है कि वर्ष २०१४ में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ट्रांसजेंडर को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता प्रदान की और संविधान में उनके समान अधिकारों की बात कही गयी | किन्तु अभी भी जमीनी स्तर पर इस समुदाय के लिए काफी कुछ किये जाने की आवश्यकता जान पड़ती है | सबसे अधिक आवश्यकता है सामाजिक स्तर पर इस समुदाय के प्रति सोच को बदले जाने की, उनके प्रति संवेदनशील भाव अपनाए जाने की तथा उन्हें कोई अवमानव न मानते हुए अपने मध्य स्वीकार्यता प्रदान करने की | मेरा मानना है कि यदि पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर ऐसे लोगों को भावनात्मक बल प्रदान करते हुए शिक्षा आदि से लेकर अन्य प्रकार के सुअवसर प्रदान किये जाएं तो उनका जीवन दिनोंदिन बेहतर होता चला जाएगा |

सामाजिक बदलाव का प्रारंभ कहाँ से और कैसे हो ? इसका प्रथम पायदान है, इस विषय पर गंभीरता से चर्चा किये जाने की और जनमानस में इससे सम्बन्धी चेतना विकसित किये जाने की | और इसका आरम्भ हो चुका दिखाई पड़ता है | हिंदी साहित्य ने गत वर्षों से जो जिरह छेड़ रखी है, उसका प्रतिफल है कि इससे सम्बन्ध रखने वाले लोगों ने इस मुद्दे को हाथों हाथ लिया है | इस विषय पर काफी कुछ लिखने, पढ़ने तथा उनके जीवन को समझने का प्रयास किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप शनैः शनैः इस समुदाय की हमारे समाज में स्वीकार्यता बढ़ेगी, ऐसा मेरा मानना है | महेंद्र भीष्म, प्रदीप सौरभ जैसे लेखक किन्नरों से जुडी पृष्ठभूमि पर लेखन करते हुए इस दिशा में सहयोग ही कर रहे हैं | आज इस समुदाय की व्यथा, समस्या आदि को विभिन्न उपन्यासों एवं किन्नर समुदाय से जुड़ी कहानियों के माध्यम से लोगों के बीच उजागर किया जा रहा है और इस समुदाय से जुड़े लोग भी इस अभियान से जुड़कर, अपनी लेखनी के माध्यम से अपना पूरा सहयोग दे रहे हैं | लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ और अब २०१८ में मनोबी बंद्योपाध्याय की प्रकाशित आत्मकथा ‘पुरुष तन मे फँसा मेरा नारी मन’ इसी क्रम में एक साहसिक कदम हैं |

पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन पश्चिम बंगाल में नैहाटी के एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे सोमनाथ की आत्मकथा है | मानोबी बंदोपाध्याय का जन्म ‘हुगली’ के ‘चंद्रनगर’ में इनके ननिहाल में हुआ था | यह कृति उनके शुन्य से शिखर तक पहुँचने , एक पुरुष शरीर की कैद से आजाद हो स्त्री काया में परिवर्तन की कथा को उनके जीवन के भिन्न भिन्न पड़ावों में आने वाली कठिनाइयों, आशाओं एवं निराशाओं, उनकी जद्दोजहद आदि का प्रखर चित्रण करती है | दो बहनों के उपरांत जन्मे सोमनाथ के पिता का उनके जन्म पर ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था मानों जीत की कोई ट्रोफी हाथ लग गयी हो | इसका कारण स्वाभाविक ही था क्योंकि हम सभी जानते हैं कि हमारे समाज में लोगों की पुत्र प्राप्ति की कामना कितनी बलवती होती है और इसे बेहद ही गौरव की बात मानी जाती है | सोमनाथ की वास्तविकता से उसके पिता अनभिज्ञ जरूर थे परन्तु स्वयं सोमनाथ नहीं | लगभग छह साल की उम्र में ही उन्हें अपने स्त्रीत्व गुण का आभास होने लगा था और वे अपनी बहनों के कपड़े बड़े ही चाव से पहनते तथा अपनी माँ के श्रृंगार प्रसाधनों का इस्तेमाल भी करते जिसे उनका बचपना समझ भुला दिया जाता | उनकी स्त्रियोचित कोमल शारीरिक संरचना को विरासत में मिला सौंदर्य समझा जाता | परन्तु वे अपनी माँ से पूरे आत्मविश्वास से कहतीं –

“मैं एक स्त्री हूँ ….. क्या आपको विश्वास नहीं आता ? क्या मुझे  आप लोगों से बेहतर तरीके से कपड़े पहनने नहीं आते ? माँ, आप मुझे एक लड़की बनने दो….|”

मनोबी बंदोपाध्याय – पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

अपने स्त्रीत्व को लेकर उनका आत्मविश्वास उनके पिता और परिवार के लिए उपहास का विषय बनता जा रहा था |  पांचवी कक्षा में आते-आते सोमनाथ नौजवानों  के प्रति आकर्षित होने लगे थे | सोमनाथ के मन में अपने पुरुष होने को लेकर इतनी कुंठा थी कि उसे अपने जननांग से नफरत होने लगी | यह तो उनकी उस मनोवैज्ञानिक द्वंद्व का प्रारंभ मात्र था | सोमनाथ में आने वाले बदलाव आस-पास के लोगों से भी छिपे नहीं थे जिसका खामियाजा परिवार के लोगों को तानाकसी सुनकर भुगतना पड़ता था | सोमनाथ जान गए थे उनके इस बदलाव की ढाल मात्र शिक्षा ही है | वे कहती हैं –

“ किसी तरह, मैंने अपने भीतर जागने वाली उस लैंगिकता को अपनी बुध्धि पर हावी नहीं होने दिया ; …. मुझे एहसास हो गया था कि केवल इसी तरह से, मैं असमानता की इस जंग को जीत सकती हूँ |”

मनोबी बंदोपाध्याय – पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

अतः वह किसी भी हालत में अपनी शिक्षा के साथ किसी भी प्रकार समझौता नहीं करती और हमेशा अपनी मेहनत से प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होती थी | हायर सेकेंडरी की परीक्षा को अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने के उपरांत उन्होंने आगे बंगला साहित्य से अध्ययन करने का निर्णय लिया | बंगला साहित्य से ग्रेजुएट एवं पोस्ट ग्रेजुएट के उपरांत पहले एम.फिल और फिर वर्ष २००५ में पीएचडी की उपाधि भी हासिल की | नृत्य आदि कलाओं में पारंगत सोमनाथ ने शिक्षा को ही अपने व्यवसाय के रूप में चुना |

उन्होंने पत्रकारिता की ओर भी अपना रुख किया और सैकड़ों लेख विभिन्न पत्रों में प्रकाशित भी हुए | अपने पीएचडी के कार्य के दौरान विषय की अतिरिक्त जानकारी एवं उनके जैसे लोगों की वास्तविक दशा एवं जीवन शैली को करीब से जानने की जिज्ञासा लिए जब वे रानाघाट के हिजड़ों के साथ जुडी तो उनकी कठिनायों को देखकर सिहर उठीं | उन्होंने ने पाया कि किस प्रकार ट्रांसजेंडर अपनी जीविका के लिए वैश्यावृति से जुड़ने के लिए विवश हैं और काफी तो एड्स का शिकार तक हो चुके हैं | उनकी तुलना मे वे स्वयं को बहुत ही अच्छी स्थिति में पाती हैं जिसके लिए वे अपने परिवार को भी श्रेय देना नहीं भूलतीं | वे कहती है –

“मैं जगदीश जैसे ट्रांसजेंडर लोगों की तुलना में, स्वयं को बहुत हद तक सौभाग्यशाली मानती हूँ | अगर मेरे परिवार ने मेरे इस विचित्र रूप के बावजूद मुझे सहारा न दिया होता, मुझ पर पढ़ने का दबाव न रखा होता तो भगवान जाने मेरे साथ क्या हुआ होता |”

मनोबी बंदोपाध्याय – पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

सोमनाथ अर्थात मानोबी ने रानाघाट के  हिजड़ा घराने की मुखिया ‘श्यामोली’ से प्रभावित होकर ‘अंतहीन अंतरीन प्रोसितोबोर्तिका’  नामक उपन्यास लिखा जो पहले तो विभिन्न एपिसोड्स में उन्ही के द्वारा चलायी जाने वाली “अबोमानोब” नामक भारत की पहली ट्रांसजेंडर पत्रिका में प्रकाशित हुआ और बाद में एक पूर्ण उपन्यास के रूप में सामने आया  |

जादव यूनिवर्सिटी में अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने नाटकों मे भी कार्य किया जिसमें सुभो बासु का ‘अमर्त्य विवाह’ बहुचर्चित रहा | एक स्कूल से अपने अध्यापन के करियर का प्रारंभ किया और झाड़ग्राम में कोलेज में लेक्चरर और बाद में नैहाटी के ही एक महिला कॉलेज में प्रिंसिपल के पद पर आसीन हैं | उनकी शैक्षणिक उपलब्धियों को देखकर ऐसा लग सकता है कि यही उनकी महत्वकांक्षा रही होगी किन्तु सत्य इससे विपरीत ही है | उनके जीवन का मूल लक्ष्य अपनी स्त्रीत्व की पहचान को कायम करना रहा है जिसके लिए उन्हें अत्यंत संघर्ष करना पड़ा है | इतना अवश्य है कि उनकी यह उपलब्धियां और इससे अर्जित की गयी समाज में प्रसिध्धि आर्थिक एवं भावनात्मक दृष्टी से अपनी मंजिल पाने में सहायक रही हैं |

सोमनाथ से मानोबी बनने तक के सफ़र में यह रचना समाज के चेहरे के दोगलेपन को खुरच-खुरच कर निकालती हुयी चलती है | समाज के वे लोग जो ऐसे लोगों को हिजड़ा आदि कहकर अपमानित या अन्य किन्हीं तरीकों से छेड़ते या प्रताड़ित करते रहते हैं, वही एकांत में उनका यौन शोषण कर अपनी काम इच्छाओं को संतुस्ट करने के लिए लालायित रहते हैं | प्रायः यह भी देखा जाता है कि इसका आरम्भ भी परिवार के लोगों या परिवार के करीबी लोगों से ही होता है | सोमनाथ का कजिन जो अक्सर शराब के नसे में हिजड़ा पैदा करने के लिए उसके पिता को अपमानित किया करता था, वही उसे अकेले पाकर उसका बलात्कार किया करता था | यह सोमनाथ का पहला सेक्स अनुभव था | पर इस अनुभव ने उसमे एक पूर्ण स्त्री बनने की चाह को और भी बल प्रदान किया |

उन्होंने इस बात को बड़ी ही ईमानदारी से स्वीकार किया है कि उनमें सेक्स की तीव्र उत्कंठा रही है और जीवन के हर मोड़ पर अलग-अलग लोगों से उनके शारीरिक सम्बन्ध रहे हैं किन्तु उन संबंधों में उनके पुरुष साथी की चाहे जो भी भावनाएं रही हों, उनकी तरफ से उनका स्त्री सुलभ प्रेम का भाव ही रहा है | उन्होंने अपने संबंधों को कभी भी एक समलैंगिक सम्बन्ध नहीं माना है | जब लोगों के समक्ष अपनी सच्चाई को लेकर वे थोड़ी बेबाक हुयी तो लोगों ने उनकी उपलब्धियों के सम्मान के कारण उन्हें पूरी तरह तो नहीं नाकारा, किन्तु उन्हें समलैंगिगकता के खांचे में जरूर लाकर फिट कर दिया | लोगों द्वारा किये जाने वाले इस बर्ताव को उन्होंने अपनी स्त्री की भावना का अपमान माना और उनके इस रवैये पर प्रश्नचिहन लगाते हुए कहा कि- 

“आप उन ….पुरुषों को क्या कहेंगे जो छोटे बच्चों का यौन शोषण करते हैं ? क्या संसार उन्हें भी समलैंगिक कहता है ? अधिकतर तो ऐसा नहीं होता | तो ट्रांसजेंडर लोगों को झट से उन खांचों में क्यों डाल दिया जाता है, जो समाज को सुविधाजनक प्रतीत होते हैं ?”

मनोबी बंदोपाध्याय – पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

उनके जीवन में यौन संबंधों की बहुतायता का एक मनोवैज्ञानिक कारण यह भी माना जा सकता है कि वे निरंतर अपने अधूरेपन से जूझती हुयी यही कामना करती रहीं की लोग भी उन्हें उन्ही की भांति एक स्त्री के रूप में ही स्वीकार करें | एक स्त्री की भांति उन्हें अपने साथी पुरुष से सच्चे प्रेम के साथ-साथ पारिवारिक सुरक्षा की तलाश रही है | परन्तु उन्हें अपने हर प्रेमी से निराशा ही मिली फिर चाहे उनके स्कूल के प्रेमी ‘श्वेत’ और ‘श्याम’ हों या फिर कॉलेज के दिनों के प्रेमी सागर बोस आदि | कईयों के लिए तो वह मात्र एक इस्तेमाल की जाने वाली वस्तु मात्र थी | वे कहती हैं –

लोगों के लिए मैं एक पका हुआ फल थी, जिसे कभी भी तोड़कर खाया जा सकता था | घर और बाहर, दोनों जगह मेरे लिए समान रूप से खतरे मौजूद थे |”

मनोबी बंदोपाध्याय – पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

कदम कदम  पर ऐसे लोगों ने उनके शरीर का उपभोग कर उन्हें छोड़ दिया किन्तु कईयों के प्रति उनके प्रेम ने उन्हें कमजोर किया और उन्हें उन परिस्थितिओं और निराशा से निकलने के लिए बहुत ही संघर्ष करना पड़ा | परन्तु इतना अवश्य था कि जीवन के अलग-अलग पड़ाव पर हुई प्रेम की अनुभूतियां उनके पूर्ण स्त्री बनने की महत्वकांक्षा को पोषित करती रही और समय के बदलाव के साथ उसे मरने नहीं दिया |

झाड़ग्राम में उनकी नियुक्ति के बाद उन्हें अपने जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजरना पड़ा | आस-पास रुढ़िवादी और निक्रिस्ट सोच रखने वाले लोगों की बहुतायत थी | उन्हें अक्सर हिजड़ा कहकर संबोधित किया जाता | छात्र संघ के प्रभावी सहकर्मी एवं छात्र अक्सर उनके खिलाफ साजिश कर, उन्हें बदनाम करके  उन्हें कॉलेज से निकलवाने का प्रपंच रचते | यहाँ तक कि उन्हें शराबी ख़राब किस्म का व्यक्ति घोषित कर उन्हें निलंबित करवाने का प्रयत्न किया गया जिसके खिलाफ वे मजबूती से लड़ीं और जीत के साथ लौटीं |

इसी दौरान उन्होंने अपने सेक्स को बदलने की प्रक्रिया का आरम्भ कर दिया था जिसके लिए वे चिकित्सक की देखरेख में होरमोंस लेना आरम्भ कर चुकी थीं | कुछ परम्परागत विचार वाले हितैषी या मित्रों ने उन्हें सर्जरी के जरिये स्त्री काया पाने की ललक को छोड़ देले की सलाह दी किन्तु वे अपने फैसले पर अडिग रहीं | दरअसल वे अपने सपाट शरीर और एक नारी मन के विरोधाभासी योग से तंग आ चुकी थी और जल्द ही अपनी पूर्णता को पा लेना चाहती थीं | एक बार तो वह अपने इस निर्णय से विचलित भी हुयी और ऑपरेशन थिएटर के बाहर से ही लौट आयीं | किन्तु इसी दौरान उन्हें पुनः एक ‘अरिंदम’ नामक युवक से प्रेम हो गया | वह चाहती थी कि उनका और उनके प्रेमी का मेल एक आम स्त्री एवं पुरुष की तरह हो | वो बात अलग है कि बाद में उन्हें ज्ञात हुआ कि अरिंदम का उनके प्रति प्रेम एक सोची समझी षड़यंत्र का हिस्सा था उन्हें प्रताड़ित एवं बदनाम किये जाने के लिए | परन्तु इतना अवश्य था कि अरिंदम के प्रति उनके निश्चल प्रेम ने उनमे पुनः अपनी पूर्णता को पा लेने के लिए साहस फूंक दिया था | तीन वर्षों तक होरमोंस लेने के बाद डॉ. खन्ना द्वारा उनका सफल ऑपरेशन हुआ और अब वे एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर चुकी हैं | यही तो वह लक्ष्य था उनका, अपनी पूर्णता को पा लेना | उन्होंने देबासीस नामक युवक को अपने दत्तक के रूप स्वीकार किया  है और आज वे एक जिम्मेदार माँ के फर्ज का भी निर्वाह कर रही हैं |


Dr. Anu Pandey

Assistant Professor (Hindi) Phd (Hindi), GSET, MEd., MPhil. 4 Books as Author, 1 as Editor, More than 30 Research papers published.

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