पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा उपन्यास में किन्नरों की स्थिति | Post Box No. 203 Nala Sopara Upnayas By : Chitra Mudgal

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पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा मानवीय बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए लिखा गया एक अत्यंत ही मर्मस्पर्शी उपन्यास है । पत्राचार शैली में लिखे गए इस उपन्यास में अधिकतर पत्रों के अंत में लिखा गया “तेरा दिकरा, उर्फ़ विनोद, उर्फ़ बिन्नी उर्फ़ बिमली” अपने आप में काफी कुछ कह जाता है । उर्फ़ शब्द का इतनी मात्र में प्रयोग थोड़ा असामान्य नहीं लगता ? हम सभी जानते हैं कि नाम के साथ उर्फ़ का लगाया जाना एक अतिरिक्त पहचान का द्योतक है । परंतु एक साथ इतने उर्फ़ एक ऐसा व्यक्ति ही लगा सकता है जो स्वयं ही अपनी पहचान को अपने अंदर हर क्षण तलासता रहा हो । निरंतर इस द्वंद्व से जूझता रहा हो कि वो आखिर है कौन ? उसकी अपनी पहचान क्या है ? विनोद का अपनी माँ को लिखा गया एक-एक पत्र पाठक को भावनाओं के भंवर में धकेल देता है। भावनाओं से ओतप्रोत उसकी तर्कसंगत दलीलें कभी आँखों को नम कर देती हैं तो कभी अपनी माँ से पूछे गए उसके बाल सुलभ प्रश्न चेहरे पर ममता से परिपूर्ण हल्की सी मुस्कान बिखेरे देते हैं | अति नाटकीयता से परे यह उपन्यास संवेदनाओं का अविरल धारा प्रवाह है जो सहज ही पाठक को अपने साथ बहाए चलती है | यह उपन्यास समाज के चेहरे से उसके मुखौटे को अपने प्रश्नरूपी  नाखूनों से परत-दर-परत, कुरेद-कुरेद कर निकालता है |

पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा उपन्यास का पात्र बिन्नी अपने परिवार से परित्यक्त होने के बाद के काल की कठिनाइयों, समस्याओं, समाज के तथाकथित सम्मानित एवं कर्ता-धर्ता वर्ग के द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों आदि का अपनी माँ के नाम लिखे गए पत्रों के माध्यम से हमारे पूरे समाज से प्रश्न करता हुआ दिखाई पड़ता है ।

उपन्यास का नाम (Novel Name)पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा (Post Box No. 203 Nala Sopara)
लेखक (Author)चित्रा मुदगल (Chitra Mudgal)
भाषा (Language)हिन्दी (Hindi)
प्रकार (Type)किन्नर विमर्श (Kinnar Vimarsh)
प्रकाशन वर्ष (Year of Publication)2016

अपनी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान विनोद स्वयं को प्रमाणित करता है कि वह किसी भी मायने में अपने सहपाठियों से कम नहीं है | फिर चाहे खेल-कूद हो या पढाई-लिखाई, सबमें अव्वल ही रहता है | अपनी माँ, पिता और मोटा भाई के लिए उसके ह्रदय में अपार प्रेम है तो छोटे भाई के लिए अपार स्नेह | शारीरिक अथवा मानसिक बल हो या कोई और विषय, किसी मायने में वह किसी भी आम इंसान से तनिक भी भिन्न नहीं,  फिर परिवार और समाज से  इस परित्याग का कोई पुख्ता कारण उसे समझ नहीं आता |  विनोद कहता है –

जननांग विकलांगता बहुत बड़ा  दोष है लेकिन इतना बड़ा भी नहीं कि तुम मान लो कि  तुम धड़ का मात्र वही निचला हिस्सा भर हो । ……  तुम्हारे हाथ-पैर नहीं  हैं, ……  सब वैसा ही है, जैसे औरों के हैं । यौन सुख लेने-देने से वंचित हो तुम, वात्सल्य सुख से नहीं !

चित्रा मुद्दगल – पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा

लिंग दोष को सर्वोपरि मान लेने वाले नजरिये पर प्रश्नचिह्न लगाता हुआ विनोद का उपर्युक्त कथन दरअसल हमारी सामाजिक व्यवस्था के दोहरे मापदंड को भी उजागर करता है । और सच भी है कि हमारा समाज मानसिक अथवा शारीरिक रूप से विकलांग लोगों को तो स्वीकार कर लेता है , परंतु लिंग दोष को तो शारीरिक अक्षमता की  श्रेणी में भी रखने को तैयार नहीं है । यह वाकई हास्यास्पद है | विनोद जैसे लोगों की मात्र इतनी सी शारीरिक अक्षमता आजीवन उनके पूरे वजूद पर हावी रहती है ।

चित्रा जी ने विनोद के रूप में एक प्रगतिशील किन्नर का व्यक्तित्व गढ़ने का प्रयास किया है जो अपने जैसे लोगों के लिए एक उदाहरण बन सकता है स्वयं के उत्थान के लिए, समाज की नकारात्मकता के खिलाफ विद्रोह के लिए | विनोद अपने परिवार के साथ रहते हुए अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करता है और बाद में किन्नरों के मध्य रहते हुए भी कुछ नया सीखने के जज्बे से विमुख नहीं हो पाता | वह किसी प्रकार से अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने का निरंतर प्रयास करता रहता है | विनोद यह मानता है कि शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जो समाज में उन  जैसों को बराबरी का दर्जा दिला सकता है तथा उन्हें प्रगति के मार्ग पर ले जा सकता है | वह कहता है –

“पढाई ही हमारी मुक्ति का रास्ता है | कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा गया है हमारे लिए |”

चित्रा मुद्दगल – पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा

वह किसी भी हालत में अपनी जीविका हेतु उन पेशों को जिस पर पूरा किन्नर समुदाय पलता है, नहीं अपनाना चाहता है | अपने साथी किन्नरों द्वारा दवाब बनाये जाने, जली-कटी एवं तानों के प्रहार से भी वह कदापि विचलित नहीं होता है और भिक्षावृत्ति, नाचने-गाने आदि प्रवृत्तियों को कभी नहीं अपनाता है | वह गाड़ियों को धोकर अपना जीवन निर्वाह करता है । साथ ही अपने जैसे अन्य को भी शारीरिक श्रम करते हुए, आत्मसम्मान से जीवन जीने की प्रेरणा देता है । विनोद अपने समुदाय को समझाते हुए कहता है कि उन्हें अवमानना झेलने से इंकार करना चाहिए तथा कुली बनकर, मिस्त्री बनकर इज्जत से कमाकर जीवन जीना चाहिए | वह अपने साथियों को  सतत उनकी अभद्र भाषा के प्रयोग के लिए टोकता है । उसका मानना है कि अपने सही बर्ताव से उसके जैसे लोगों को समाज की मुख्य धारा में स्वीकृति की संभावना बढ़ेगी ।  वह अपने साथ रहने वाले किन्नरों को भी स्वयं की ही भांति मेहनत करने के लिए प्रेरित करता है | उससे प्रभावित पूनम भी श्रम करते हुए जीवन जीने का निर्णय लेती है | अपनी इस प्रगतिवादी सोच का  पूनम पर किये गए प्रयोग को सफल होता देख विनोद प्रसन्नता का अनुभव करता है ।

अब इसमें एक समस्या है | जब हम कहते हैं कि आप भिक्षावृत्ति का त्याग करें तथा कोई और व्यवसाय अपनाएं, तो प्रश्न उठता है क्या किया जाय ? किसी और व्यवसाय का चयन किया जाना, क्या बिना मुख्य धारा के लोगों को शामिल किये संभव है ? क्या हमारा समाज आज इतना परिपक्व हो चुका है उन्हें किसी भी रूप में अपनाने के लिए सहज है ? क्या हम उन्हें एक शिक्षक के रूप में स्वीकार कर पाएंगे, या डॉक्टर या नर्स के रूप में ? शायद नहीं | सर्वप्रथम हम  उन्हें एक इंसान के रूप में तो अपनाएँ | परिवार और समाज द्वारा किया गया परित्याग उन्हें पथभ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ता | और वैसे भी एक ऐसा व्यक्ति जिसके बारे में समाज को चिंता नहीं, वह समाज की चिंता क्यों करे ? और यही कारण है कि कुछ किन्नर अपराधिक प्रवृत्तियों में भी लिप्त हो जाते हैं | रही सही कसर किन्नर घरानों के पथभ्रष्ट सरदार पूरा कर देते हैं, उन्हें मानसिक एवं शारीरिक यातनाएं देकर | इसका उल्लेख करता हुआ विनोद कहता है –

“असामाजिक तत्वों के हाथ की कठपुतली बनने में जितनी भूमिका किन्नरों के सन्दर्भ में बहिष्कार-तिरस्कार की रही है, उससे कम उनके पथभ्रष्ट निरंकुश सरदारों और गुरुओं की नहीं |”

चित्रा मुद्दगल – पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा

और अगर इस समुदाय से कुछ लोग  सदियों से चली आ रही बेड़ियों को तोड़कर निकलना चाहते हैं, स्वयं को बदलना चाहते  हैं, तो उन्हें समाज के लोग बदलने नहीं देते | दरअसल हमने अपने मानस में इस समुदाय की एक छवि बना रखी है, वही खिलंदडेपन वाली तथा उनके जीवन यापन का एक दायरा भी चिह्नित कर दिया है, जिसकी परिधि का अतिक्रमण हम कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते | हमारे समाज की इस समुदाय के प्रति संकीर्ण सोच भी इस समुदाय के उन लोगों के लिए , जो समाज की मुख्यधारा से जुड़कर, श्रम करते हुए , स्वाभिमान के साथ अपना जीवन जीना चाहते हैं, कई कठिनाइयां पैदा करती है । विनोद के विचारों से प्रभावित पूनम भी जब गाड़ियों को धोने का कार्य प्रारंभ करती है तब उसे भी समाज की स्वीकार्यता को लेकर कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है | इस कार्य के दौरान आस-पास के लोग उससे भद्दे मजाक किया करते थे | जो एक सीमा के बाद पूनम के लिए असह्य हो जाता और वह इस काम को छोड़ने के बारे में सोचने लगती | किंतु विनोद द्वारा इसे नजरअंदाज करने का सुझाव दिया जाता | विनोद भी जानता है कि समाज की मुख्यधारा के लोग अभी उनके इस रूप के आदी नहीं  है, सो इस प्रकार की कठिनाइयों का आना स्वाभाविक ही है | अतः आवश्यकता है इससे जूझने की, न कि पीठ दिखाकर भाग खड़े होने की |

पूनम के चरित्र के माध्यम से लेखिका ने समाज के रसूखदार लोगों को बेनकाब करने का प्रयास किया है | पूनम नामक यह पात्र हमारे समाज के कुछ अय्याशों की पाशविकता का शिकार बनती है । विधायक की कोठी पर नृत्य के उपरांत जब वह अपने कपड़ों को बदल रही होती है तब विधायक का भतीजा और उसके मित्र उसके कक्ष में जबरन प्रविष्ट होते हैं और उसके साथ सामूहिक बलात्कार करते है । चूँकि ये लोग समाज के तथाकथित सम्मानित और रशूखदार परिवार से ताल्लुक रखते हैं, सारे मसले को एक नया रूप देकर, दबा दिया जाता है  । इस प्रकरण पर न ही कोई न्याय  की बात करता है और न ही कोई पुलिस केस होता हैं । इस पूरे पाशविक प्रकरण को महज बच्चों की एक गलती का जामा पहना दिया जाता है । क्या एक किन्नर की शारीरिक पीड़ा का कोइ मोल नहीं ? उस पर हुआ अत्याचार मानवीय दृष्टी से जायज है ? अगर नहीं, तो फिर ऐसा क्यों है कि ऐसे किसी प्रकरण पर पूरा का पूरा समाज गूंगा और बहरा हो जाता है | यहाँ तक कि स्वयं किन्नर समुदाय इस अन्याय को मौन रूप से सह लेता है । शारीरिक रूप से सशक्त , तालियां पीटते, मुहं से गालियों की बौछार करते , झगड़ालू, जिद्दी ये लोग भरी भीड़ में, कितने अकेले हैं, यह एक आम इंसान की समझ से परे है | नवजातों का परीक्षण कर, अपने जैसे  लिंगदोषियों को साथ ले जाने की जिद पर क्यों अड़े रहते हैं यह । दरअसल  

“यह भीतर से खोखले और डरे हुए लोगों की जमातें हैं | ये चाहते हैं, जिस विशेष परिभाषा से उन्हें मंडित किया गया है, उसी रूप में सही , उनकी भी एक संगठित उपस्थिति समाज में बने | उनकी ताकत में इजाफा हो | ढूंढते फिरते हैं , जननांग विकलांगों को, इसीलिए | …गुरु परंपरा से दीक्षित कर बनाये रखना चाहते हैं उस एकता को जो उन्हें आपस में जोड़े रहे | “

चित्रा मुद्दगल – पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा

यह  तर्क  उनके  इस  कृत्य  को किसी भी रूप में न्याय नही देता । क्योंकि उनके द्वारा पैदा किये गए भय के कारण कई परिवार जो ऐसे बच्चों को अपने साथ रखकर, सामान्य जीवन देना चाहते हैं, उन्हें सौंप देते हैं । सिर्फ अपने समाज के संख्याबल में वृद्धि के स्वार्थ के लिए , अपने जैसे और पीड़ित पैदा करना, एक संभावित अच्छे जीवन को नरक बना देना, किसी भी रूप में उचित नहीं लगता । जब तक यह समुदाय अपने जैसों को उनके परिवार से अलग करने की अपनी इस हठधर्मिता को छोड़कर, स्वयं उन्हें समाज के मध्य जीने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता, तब तक उनकी परिस्थिति में सुधार आना असंभव है । इस समुदाय के उत्थान के लिए किन्नर समुदाय और हमारे समाज की मुख्य धारा के लोग, दोनों को एक एक कदम एक दूसरे के समीप आने की आवश्कयता है । आवश्यकता है उनके अधिकारों के संरक्षण की, उनके प्रति न्याय की और सहानुभूति से ऊपर, उन्हें समाज से जुड़ने के लिए अवसर प्रदान किये जाने की ।

सदियों से इस समुदाय की इतनी दयनीय दशा रही है और अभी तक किसी ने इसके प्रतिकार का दु:साहस नहीं किया,  ऐसा क्यों ? दरअसल इस स्थिति के लिए स्वयं यह समुदाय भी कम जिम्मेदार नहीं  है | लोगों के तिरस्कार, उनके प्रति घृणा के भाव, उनके साथ किये जाने वाले छिछोरे और भद्दे मजाक, तथा बार बार यह एहसास दिलाना कि वे औरों से पृथक हैं,  उनके मानस में एक दायरा चिह्नित कर देता है , जिसकी परिधि से वे आजीवन बाहर नहीं निकल पाते । उन्हें जिस तरह जीवन जीने का अवसर दिया गया, उसी लीक पर बिना सोचे समझे चलते चले गए | जिस रूप में लोगों ने उन्हें देखना चाहा, उसी रूप में दिखने में उन्हें स्वयं आनंद का अनुभव होने लगा |  इस समुदाय ने  

“अपने मानसिक अनुकूलन को ही अपनी नियति मान लिया और हाशिये के उस नरक की शर्तों को अपने जीवन का पर्याय |…….क्यों नहीं तोड़ने की कोशिश की उन लोगों ने उन शर्तों को कि नहीं जियेंगे हम उस तरह से, जिस तरह से जिलाए रखने की साजिस रचे हुए हैं | अपने मनोरंजन और खिलंदड़ेपन के रस को जीने के लिए | मूर्ख नहीं ऑंखें खोल पा रहे कि तुम न माधुरी दीक्षित हो, न रेखा |”

चित्रा मुद्दगल – पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा

जब तक वे अपने इस भ्रम से मुक्ति पाकर, एक बेहतर जीवन के लिए प्रयत्न आरम्भ नहीं करते, तब तक उनका उत्थान संभव नहीं है |

विनोद भी राजनीति की शतरंज का एक मोहरा मात्र बनकर रह जाता है | विनोद की आगे पढ़ने की इच्छा, आगे बढ़ने की ललक को देखते हुए पूनम विधायक से सहायता की गुजारिश करती है | विधायक विनोद को कंप्यूटर का प्रशिक्षण दिलाकर बाद में उसे नौकरी देने का प्रस्ताव रखते हैं  | विनोद और पूनम इस बात से अनभिग्य होते हैं कि उनका भी राजनीति में भरपूर इस्तेमाल होने जा रहा है | इस बात का एहसास विनोद को तब होता है जब उसे चंडीगढ़ भेजकर किन्नर समुदाय को संबोधित करने, आरक्षण की मांग करने, धरना करने और अनशन पर बैठने की सलाह दी जाती है । उसे यह समझाने का प्रयास किया जाता है कि इस समुदाय को  भी अन्य की ही भांति अपने अधिकारों के लिए उपद्रव का ही रास्ता अख्तियार करना पड़ेगा | देश की अनिवार्य सेवाओं को ठप्प कर देना होगा, पटरियों पर लेटना, जेले भरना, पुतले फूंकना, कोहराम मचाना आदि हथकंडे अपनाने पड़ेंगे |

परन्तु विनोद बड़ी ही समझदारी से अपने समुदाय को लेकर सरकार की मंसा को पूर्ण नहीं होने देता | वह चाहता है कि किन्नरों को आरक्षण किसी तीसरी श्रेणी में न देकर, बाकी लोगों की तरह सामान्य श्रेणी में ही दिया जाय ताकि किन्नरों और मुख्य धारा के बीच और भी गहरी खाई न पनपे । विनोद अपने समुदाय को संबोधित करते हुए बात करता है उनके हित की, उनकी पीड़ा की, उनके अधिकार की, और अन्य उन सभी बिन्दुओं की जिससे उसके अपने लोगों का भला हो सके । अंतत: अपने स्वार्थपूर्ति को न होता देख राजनीति के भेड़िये उसकी हत्या करवा देते हैं । मात्र आरक्षण के प्रावधान से ही इनका भला संभव नहीं है । इस दिशा में कई कानून बनाये जाने तथा समाज को चेतन करने की आवश्यकता है । कहते हैं कि रोकथाम इलाज से बेहतर विकल्प होता है । तो फिर क्यों न इसके मूल पर ही पहला प्रहार किया जाये ?

कन्या भ्रूण हत्या के दोषी माता-पिता अपराधी हैं । उससे कम दंडनीय अपराध नहीं जननांग दोषी बच्चों का त्याग ।”

चित्रा मुद्दगल – पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा

तो फिर क्यों न किसी ऐसे क़ानून की व्यवस्था की जाए जिसकी मदद से जननांग दोषियों के समाज से परित्याग किये जाने की प्रक्रिया पर ही रोक लगायी जा सके । सरकार द्वारा लिंगदोषियों को अपने साथ रखने के लिए परिवार के लोगों को प्रोत्साहन एवं अवसर प्रदान किया जाय, उन्हें संरक्षण दिया जाय तथा उससे सम्बन्धी कानून का निर्माण हो । 

यह उपन्यास किन्नर समुदाय की दीन-हीन परिस्थिति को हमारे समक्ष उजागर मात्र नहीं करता अपितु इसे लेकर एक आशावादी सोच भी हमारे समक्ष रखता है | आज तक भले ही वे दयनीय अवस्था में जीते रहे हैं, किंतु इस समुदाय में अपनी इच्छाशक्ति एवं समय रहते समाज की मुख्य धारा के लोगों की सोच में आने वाले बदलाव के चलते इनकी परिस्थिति में सुधार अवश्य आएगा | बिन्नी की माँ का यह कथन –

“समाज को ऐसे लोगों की आदत नहीं है और वे आदत डालना भी नहीं चाहते पर मुझे विश्वास है, हमेशा ऐसी स्थिति नहीं रहने वाली | वक्त बदलेगा | वक्त के साथ नजरिया बदलेगा |”

चित्रा मुद्दगल – पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा

इसी बदलाव की उम्मीद का परिचायक है |  विनोद के एक एक पत्र में लिखे गए उसके विचार, प्रत्युत्तर में उसकी माँ वंदना की मनःदशा, विनोद के प्रति उसका प्रेम, विनोद की उलाहना तो माँ द्वारा उसकी अपनी विवशता का प्रकटीकरण आदि उनके आत्मीय संबंधों की प्रगाढ़ता को उजागर करते हैं । एक समय में सामाजिक प्रतिष्ठा खोने का भय कोख के अधिकार पर भारी पड़ता है तो कालांतर में उसका पश्चाताप नजर आता है तो साथ ही की गई भूल को सुधारने का प्रयास  । वंदना बेन के द्वारा विनोद के लिए अख़बार में छपवाया गया माफीनामा और उसे उसके अन्य भाइयों की तरह उसकी चिता को मुखाग्नि देने का अधिकार, घर वापसी का बुलावा, समाज के सामने एक नयी मिसाल प्रस्तुत करता है । यह एक नए परिवर्तन की आकांक्षा है, साहस है ।

आज अलग-अलग मंचों के माध्यम से उठाये जा रहे किन्नर समुदाय से सम्बन्धी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक आदि मुद्दों ने एक नई जिरह को हवा दी है | मेरी दृष्टी से उनकी समस्याओं पर जिरह मात्र से कुछ खास बदलाव संभव नहीं होगा किंतु इतना अवश्य है कि इस चर्चा के आरम्भ से हमारें समाज में इस समुदय को लेकर  एक जागरूकता आएगी, इनके नारकीय जीवन के प्रति संवेदना पैदा होगी, अन्धविश्वास और भ्रान्तियां टूटेंगी तथा समाज की मुख्य धारा में इनकी स्वीकार्यता को बल मिलेगा । इस समुदाय के उत्थान हेतु हमारे सिस्टम के सभी धड़ों को सामानांतर रूप से तेजी से कार्य करने की आवश्यकता है |  यह उपन्यास एक  प्रश्न है कि जब हम आपसे  भिन्न नहीं हैं किसी भी मायने में, हममें भी आप की तरह संवेदना है, ममता है, एक अपना दृष्टिकोण  है, अपना एक नजरिया है हर चीजों के प्रति, शारीरिक और मानसिक हर प्रकार से आपसे कम सक्षम नहीं  हैं, तो फिर सिर्फ जननांग दोष की इतनी नारकीय सजा भुगतने के लिए हम क्यों इतने विवश हैं |


Dr. Anu Pandey

Assistant Professor (Hindi) Phd (Hindi), GSET, MEd., MPhil. 4 Books as Author, 1 as Editor, More than 30 Research papers published.

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