विद्रोह उपन्यास – विद्रोह करती नारियां | Vidroh Upanayas By : Kailash chand Chauhan

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दलित शब्द का अर्थ होता है दलन किया हुआ | अर्थात हर वह व्यक्ति जो शोषित है,  उत्पीड़न का शिकार है, वंचित एवं गरीब है, इस श्रेणी में आ जाता है | परन्तु पिछले कुछ दशकों से दलित शब्द के परिभाषा का दायरा संकीर्ण हो चुका है और इसका प्रयोग इतने व्यापक स्तर पर नहीं किया जाता है | सर्वप्रथम ज्योतिराव फुले और बाद में बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर द्वारा दलितों के लिए उद्धार हेतु चलाये जाने वाले आंदोलनों एवं उनसे सम्बन्धी साहित्य लेखन की बदौलत इस शब्द को हिन्दू वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर प्रतिष्ठित किये गए लोगों के लिए सामूहिक रूप से  प्रयुक्त किया जाने लगा | ये वो जातियां है जिन्हें हिन्दू वर्ण व्यवस्था का खामियाजा सदियों से भुगतना पड़ा है | इन्हें अपने ही धर्म में अस्पृश्य घोषित कर उन्हें उनके मौलिक एवं मानवीय अधिकारों के साथ-साथ शिक्षा, न्याय, समानता एवं स्वतंत्रता जैसे अधिकारों से भी  सदियों से वंचित रखा गया |

भारतीय  संविधान में इस वर्ग को अनुसूचित जाति के नाम से जाना जाता है | इनसे जुड़ा हुआ साहित्य ही दलित साहित्य कहा जाता है | साहित्य में दलित वर्ग की उपस्थिति  बौद्ध काल से ही रही है, किन्तु इसका प्रखर स्वरूप बीसवीं शताब्दी में उभर कर सामने आया | बाबा साहेब की आत्मकथा ‘मी कसा झाला’ जो की मराठी में रचित है, इसे इस विधा का प्रारंभ माना जाता है | बाद में अस्सी तथा नब्बे के दशक में दलित साहित्य ने एक साहित्यिक आन्दोलन का स्वरुप अख्तियार कर लिया और इस समाज से कई रचनाकार अपनी शसक्त रचनाएं लेकर सामने आये जिसने इस जिरह को हवा दी कि इस उपेक्षा एवं पीड़ा की स्वानुभूति करने वाले मात्र दलित लेखकों के द्वारा की जाने वाली रचनाएँ ही दलित साहित्य की श्रेणी में रखी जाएँ या इसमें दलित वर्ग की पीड़ा के साक्षात्कार के आधार पर प्रमाणिकता के साथ लेखनी चलाने वाले गैरदलित लेखकों को भी स्थान दिया जा सकता है | यह जिरह का विषय भले ही बना रहे, परन्तु यदि साहित्य के हित की दृष्टी से देखा  जाए तो दोनों तरह के लेखकों की रचनाओं का समान रूप से समावेश दलित साहित्य को और भी समृद्ध करेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है |

उपन्यास का नाम (Novel Name)विद्रोह (Vidroh)
लेखक (Author)कैलाश चंद चौहान  (Kailashchand Chauhan)
भाषा (Language)हिन्दी (Hindi)
प्रकार (Type)दलित विमर्श (Dalit Vimarsh)
प्रकाशन वर्ष (Year of Publication)2017

कैलाश चंद चौहान आज दलित साहित्य लेखन में जाना-पहचाना नाम हैं | उनका पहला उपन्यास ‘सुबह के लिए’ २०११, बहुचर्चित कहानी संग्रह ‘संजीव का ढाबा’ २०१२ तथा ‘भंवर’ नामक उपन्यास २०१३ में प्रकाशित हुआ जिसे बहुत ही सराहा गया | कैलाश जी का ‘विद्रोह‘ नामक उपन्यास २०१७ में प्रकाशित हुआ है जिसकी भूमिका दलित साहित्य की जानी-मानी लेखिका सुशीला टाकभौरे जी ने लिखी है | यह उपन्यास अपने पात्रों के माध्यम से समाज की जातिगत व्यवस्था, अस्पृश्यता, अन्धविश्वास आदि के साथ-साथ आज के दौर में व्याप्त कई अन्य ज्वलंत मुद्दों के खिलाफ विद्रोह करता है | इस उपन्यास के लगभग सभी नारी पात्र बेहद सशक्त हैं जो सामाजिक विसंगतियों का डटकर प्रतिकार करती हैं | वे इतनी परिवर्नशील हैं कि  जातिगत व्यवस्था को तोड़ते हुए अंतरजातीय विवाह आदि को सहज स्वीकृति प्रदान करती हैं तथा पारिवारिक दबाव के चलते अंधविश्वास आदि के खिलाफ विद्रोह करते हुए अपने विचारों एवं सिद्धांतो से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करतीं |

इस उपन्यास का प्रमुख पात्र ‘विक्रम’ दलित समाज का प्रतिनिधित्व करता है | विक्रम के गाँव में उच्च जाति के लोगों द्वारा आग लगा दी जाती है | अपने घर-बार और गाँव को छोड़कर उनका परिवार शहर में आकर रहने के लिए विवश हो जाता है | शिक्षा और प्रगति आदि को लेकर जागरूक विक्रम उच्च शिक्षा हासिल कर न सिर्फ स्वयं सरकारी महकमे में जूनियर इंजिनियर के पद पर आसीन होता है बल्कि अपने पूरे समाज के सामने एक मिसाल प्रस्तुत करता है कि यदि किसी व्यक्ति में प्रबल इच्छा शक्ति हो तो उसके लिए कुछ भी हासिल करना असंभव नहीं है | यहाँ तक कि वह अपनी बहन स्नेहा की शिक्षा पर भी जोर देता है |

प्रगितिशील विचारों वाला विक्रम न तो स्वयं हिन्दू धर्म के आडम्बरों में विश्वास करता है और न ही अपने परिवारजनों को इसका पालन करने की सलाह देता है | हिन्दू धर्म में जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था को लेकर प्रियंका के समक्ष अपने विचारों को रखता हुआ वह कहता है-

“हिन्दू धर्म में कुछ ऐसा ही है. कर्म के आधार पर बनी जातियां जन्म से लेकर मरने तक पीछा नहीं छोड़ती. शमशान घाट में भी जाति नहीं. चाहे कोई अच्छा पढ़ लिखकर आईएस ऑफिसर ही क्यों न बन जाए, उसकी जाति वही रहेगी जिस कर्म वाली जाति में उसका जन्म हुआ. डॉ. अम्बेडकर के साथ क्या हश्र हुआ था, यह सब पढ़कर मैं जान चुका हूँ.”

कैलाश चंद चौहान – विद्रोह

दरअसल उसका यह विचार अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर ही था | बतौर जूनियर इंजिनियर अपनी नौकरी के पहले ही दिन वर्ग भेद के कटु अनुभव का सामना करना पड़ता है | ऑफिस के उसके अपने ही सहकर्मी शर्मा जी एक सफाई कर्मचारी के विषय में अभद्र टिप्पणी करते हैं जिसके कारण उनके और पन्नाराम गौतम के बीच वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है | बाद में पन्नाराम जो जाटव समाज से हैं, विक्रम के साथ अन्य उच्च जाति के सहकर्मियों के विचारों एवं उनके साथ के अपने अनुभवों को साझा करते हैं | पन्नाराम अपने सहकर्मियों के तुच्छ विचारों का डटकर मुकाबला करते हैं | इस पात्र का विद्रोह करने का तरीका किसी भी तरह से तर्कसंगत नहीं लगता | पन्नाराम भी रिश्वत इसलिए लेते हैं क्योंकि उच्च जाति से ताल्लुक रखने वाले उनके सहकर्मी रिश्वत लेते हैं | यह तर्क वाकई हास्यास्पद है | खैर, उन्ही के प्रभाव में आकर विक्रम भी रिश्वत लेने लगता है | उसका तर्क है कि वह उन पैसों से अपने समाज के लोगों के उत्थान के लिए कार्य करेगा | उसे उनकी शिक्षा सम्बन्धी जरूरतों में लगाएगा | ऐसा लगता है मानो लेखक ने इस पात्र को रॉबिनहुड की छवि देने का प्रयास किया है |

चूँकि एक स्त्री किसी भी परिवार की धुरी होती है, अतः वह जितनी प्रगितिशील एवं शसक्त होगी, वह परिवार और फिर वह समाज भी उतना ही प्रगितिशील होगा | शायद यही कारण है कि कैलाश जी ने अपने इस उपन्यास के अधिकतर नारी पात्रों को फिर चाहे वह सवर्ण वर्ग से ताल्लुक रखती हों या दलित वर्ग से, सभी को प्रगतिशील और जागरूक नारी के रूप में गढ़ने का प्रयास किया है |

‘प्रियंका’ जो जाति से गुप्ता है, वह विक्रम से प्रेम करती है | उसके इस प्रेम को लेकर घर में माता-पिता के साथ काफी विरोध का सामना करना पड़ता है | उसकी बहन जो एक पढ़ी-लिखी युवती है, अपनी बहन प्रियंका का साथ देती है और अपने माता-पिता को इस जाती-पाति के टंटे से ऊपर उठने की सलाह देते हुए उन्हें समझाने का प्रयास करती है | हालाँकि उनके पिता पढ़े लिखे व्यक्ति हैं और माता भी सुलझे हुए व्यक्तित्व की हैं, किन्तु समाज का भय उन्हें इस विवाह के लिए सहमति देने से रोके रखता है | इस पर प्रियंका इस सामाजिक व्यवस्था को नकारते हुए अपनी मां को समझाते हुए कहती है – 

“समाज के सामने हम इतना क्यों झुकते हैं मम्मी. समाज क्या हमें खाने को देता है. वो हमारे यहाँ राशन भरवाता है, नहीं न.”

कैलाश चंद चौहान – विद्रोह

हमारे समाज में जहाँ इतनी रूढ़ियाँ और जात-पात को लेकर इतना कट्टरपन विद्यमान हैं, ऐसे में एक स्त्री का ऐसा साहसिक विचार रखना और उस पर समाज के खिलाफ जाकर भी अपनी राय पर कायम रहना वाकई काबिले तारीफ है | यहाँ तक कि विक्रम भी जाति-भेद की जटिलताओं के विषय में समझाने का प्रयास करता है, किन्तु प्रियंका अदम्य साहस दिखाते हुए, सभी के खिलाफ जाकर विक्रम से विवाह करती है और उसके परिवार और समाज दोनों को सहर्ष स्वीकार करती है |

इस उपन्यास की दूसरी बहुत ही सशक्त नारी पात्र है पूजा | पूजा जो विक्रम की फुफेरी बहन है, उसका विवाह उन्ही की जाति के लड़के महेंद्र के साथ बड़े ही धूम-धाम से होता है | महेंद के परिवार के लोग हिन्दू रीति-रिवाजों का बड़ी ही कट्टरता से पालन करने वाले तथा पुराने ज़माने से चले आ रहे  देवी-देवताओं का नियमित रूप से पालन करने वाले लोग थे | वहीं इसके विपरीत पूजा डॉ. अम्बेडकर के विचारों से बहुत ही प्रभावित थी तथा इन आडम्बरों से कोसों दूर थी | उसके ससुराल में उसका और उसके परिजनों से इन विषयों को लेकर हमेशा ही मतभेद रहता है | वह कहती है –

“मेरे माँ बाप भी करते हैं, भगवानों की पूजा से लेकर खानदानी देवी-देवताओं की पूजा तक. पर मेरा मन नहीं मानता. न मैंने अपने पीहर में धोक लगायी, न मैं ससुराल में लगाऊं”

कैलाश चंद चौहान – विद्रोह

यहाँ तक कि वह करवाचौथ का व्रत तक रखने के लिए मना कर देती है | इस बात को लेकर उसके घर में उसकी सास तथा पति महेंद्र के साथ काफी विवाद होता है और बात पारिवारिक हिंसा तक पहुँच जाती है | इस प्रताड़ना से व्यथित पूजा घर छोड़कर विक्रम के घर चली जाती है | पूजा की जिद पर फूलो द्वारा समझाये जाने पर कि उसकी जिद से उसका दाम्पत्य जीवन ही ख़राब होगा, पूजा पूरे आत्मविश्वास से कहती है

“घर ख़राब होता हो तो होए, मैं पढ़ी-लिखी हूँ. कमाकर खा लूंगी”

कैलाश चंद चौहान – विद्रोह

पूजा में इस आत्मविश्वास का मूल कारण शिक्षा और उसका पारिवारिक परिवेश ही था जहाँ उसे एक उन्नत माहौल प्राप्त हुआ था | पूजा  बड़े ही साहस के साथ सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ विद्रोह करती है |

इसी क्रम में विक्रम की बहन स्नेहा भी एक पढ़ी-लिखी, सुलझी हुयी और अपने विचारों के साथ किसी भी हाल  में समझौता न करने वाली स्त्री पात्र है | हालाँकि वह राघवेन्द्र नामक जिस लड़के से प्रेम करती है वह उन्ही की जाति से ताल्लुक रखता है | उनके प्रेम सम्बन्ध और विवाह के प्रस्ताव को लेकर राघवेन्द्र और स्नेहा के परिवारों के मध्य भी कोई असहमति नहीं होती है | किन्तु स्नेहा जब राघवेन्द्र के परिवार के तौर तरीकों और उनके रहन-सहन को नजदीक से अनुभव करती है तब उसे ज्ञात होता है कि वे लोग भले ही अत्यधिक पढ़े लिखे लोग हैं किन्तु सामाजिक आडम्बरों से आज भी स्वयं को दूर नहीं रख सके हैं | यहाँ तक कि वे समाज में अपनी पहचान तक छुपा कर जीते हैं | ऐसे में स्नेहा एक कठोर निर्णय लेते हुए राघवेन्द्र से कहती है  –

“मैं केवल डॉक्टर अम्बेडकर को मानती हूँ, तुम्हारे यहाँ नहीं मानते. पूजा-पाठ, मंदिरों में घंटे बजाने का काम मैं नहीं कर सकती. न मैं तीर्थ यात्रा पर जा सकती. इसलिए मैं तुमसे किसी भी हालात में शादी नहीं कर सकती. मैं नास्तिक हूं ……नास्तिक”

कैलाश चंद चौहान – विद्रोह

स्नेहा अपने सिध्धांत एवं सोच को अपने  प्रेम और निजी सुख से कहीं अधिक महत्व देती है |

सोनी नामक स्त्री चरित्र समाज के उच्च वर्गीय अहंकार के खिलाफ विद्रोह करती हुयी दिखायी पड़ती है | सोनी जो की एक उच्च वर्ग से ताल्लुक रखती है, संतान की प्राप्ति के लिए एक नीच जाति के काले नामक व्यकित से सम्बन्ध बनाती है | काले कोई और नहीं बल्कि विक्रम का पिता था | उसके पुत्र हेमंत को जब दूसरे गाँव वाले बुरी तरह पीटते हैं तो वे उसके इलाज के लिए दिल्ली लेकर आते हैं | दिल्ली में आकर सोनी विक्रम की सहायता लेने का प्रस्ताव रखती है तो उसके पति बलदेव का उच्च वर्गीय अहंकार जाग उठता है और वह कहता है –

गाँव का है तो के हुआ. कोई बनिया, ब्राह्मण थोड़ी ना से, चूहड़ा से चूहड़ा …..”

कैलाश चंद चौहान – विद्रोह

यह वाकई हास्यास्पद है कि हमारे समाज में जातीय भेद, ऊंच -नीच की मानसिकता लोगों को इस कदर जकडे हुए है कि वे किसी भी परिस्थिति में उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं है, फिर चाहे उसके लिए जान से ही क्यों न हाथ धो बैठें |सोनी इस विचार का विद्रोह करती है | वह विक्रम को सहायता के लिए बुलाती है और उसके परिवार से मिलने उसके घर जाती है, साथ-साथ भोजन भी करती है | उसका पति बलदेव जब पत्नी सोना को विक्रम के घर भोजन करने के कारण फटकारता है तब वह गुस्से से कहती है –

“देख कैसे गऊ के जाए बनो हो. मुझे तो कुछ पता ही ना सै. हमारी औरतें ना जाती, चूहड़े-चमारों के यहाँ खाण. तम मर्द ही हर जगह मुंह मारो. ……. जब भी उनके सूअर कटा, तुम देर रात को खुद जाते उनके घरा. खूब दारु मीट उड़ाकर घरा आते, आज बन रे सो पंडित. गांव के पंडित, बनिये  तक तो उनके यहाँ खानेचले जा सै, औरतों के सामने तम बन जाओ जात के ऊंचे …….फिर उन्हीं के घर फूंक दिए, नमक की लाज भी ना रख्खी. तुम्हे खिलाएं भी, थारी गलती पर मुहं जोरी करें तो तम उनके घर फूंक दो.”

कैलाश चंद चौहान – विद्रोह

सोनी उच्च जातीय घमंड एवं दोगलेपन के खिलाफ विद्रोह करती हुयी एक उदाहरण प्रस्तुत करती है |

इस उपन्यास के अधिकतर पात्र सदियों से चली आ रही परम्पराओं, मान्यताओं, ऊंच -नीच के भेद आदि के खिलाफ विद्रोह करते हैं किन्तु साथ ही सामाजिक बदलाव का मार्ग भी प्रसस्त करते हैं | लेखक ने अपनी इस रचना में एक सकारात्मक बदलाव को भी दर्शाने का प्रयास किया है, मसलन ऊंच-नीच के भेद में कमी, शिक्षा के प्रति जागरूकता और आगे आने वाली पीढ़ियों में हर समाज के लोगों के लिए सहज स्वीकार्यता आदि | मसलन जहाँ – 

“एक समय था, जब दलितों के बच्चों को स्कूल में पढ़ने की इजाजत नहीं थी. इजाजत मिली तो उन्हें गैरदलितों के बच्चों से दूर बैठाया जाता था. ………. आज हो यह रहा था कि वाल्मीकि मंदिर में चलने वाले सैंटर में गैरदलित अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए बार-बार प्रार्थना कर रहे थे |”

कैलाश चंद चौहान – विद्रोह

यह इस समाज के लोगों का उनके अपने प्रयासों और मेहनत का प्रतिफल ही है कि वे स्वयं को इस भांति स्थापित कर पाने में समर्थ हुए हैं कि उन्हें दुत्कारने वाले आज स्वयं चल क़र आ रहे हैं, उन्हीं के पास, उनकी सहायता मांगने | दूसरा पक्ष यह है कि स्वयं को अन्य से उच्च समझने वाले लोग अपने जातिय अहंकार को छोड़कर, अपनी आने वाली पीढ़ियों की बेहतरी के लिए एक दूसरे के समीप जा रहे हैं | यह एक बहुत ही सकारात्मक बदलाव का चित्रण है | इस उपन्यास के अधिकतर पात्र फिर चाहे वह अल्पशिक्षित ही क्यों न हों, वैचारिक दृष्टी से काफी सजग एवं जागरूक हैं | विक्रम की माँ फूलो भी एक ऐसी ही स्त्री है | वह अन्य जाति से होने के बावजूद बहू के रूप में प्रियंका को सहजता से स्वीकार करती है साथ ही अपनी पुत्री स्नेहा की शिक्षा को लेकर भी बहुत जागरूक है | वह स्नेहा के विवाह के प्रश्न पर सोनी से कहती है –

“अम्बेडकर जी कह गए हैं, बच्चों को खूब पढाओ. शिक्षा शेरनी का दूध है. अभी तो यह शेरनी का दूध खूब पी ले, तब करेंगे इसकी शादी”|

कैलाश चंद चौहान – विद्रोह

कैलास जी का यह उपन्यास विभिन्न सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ अपने स्त्री पात्रों को माध्यम बनाते हुए विद्रोह करता है | उनके उपन्यास की नारियां समाज द्वारा चिह्नित दायरे का अतिक्रमण करने का साहस दिखाती हैं और लीक से हटकर चलने का प्रयास करती हैं | वे पारिवारिक दबाव से बिना डरे धार्मिक पाखंड के खिलाफ उठ खड़ी होती हैं तो जातिगत अभिमान का प्रतिकार भी करती हैं | जाति से बाहर जाकर विवाह करने का साहस दिखाती हैं तो दूसरी ओर अन्य जाति की स्त्री को पुत्रवधू के रूप में सहज स्वीकार्यता दिखाती हैं | यह उपन्यास सामाजिक विसंगतियों का चित्रण मात्र नहीं करता वरन उनके खिलाफ बड़े ही शसक्त रूप से विद्रोह छेड़ता है |


Dr. Anu Pandey

Assistant Professor (Hindi) Phd (Hindi), GSET, MEd., MPhil. 4 Books as Author, 1 as Editor, More than 30 Research papers published.

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