मानवीय संवेदनाओं का कोलाज : ‘प्रवास में’ | ‘Pravas Mein’ Kahani Sangrah By Usha Raje Saxena

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प्रवासी भारतीय साहित्य ने विगत कुछ वर्षों में हिंदी साहित्य संसार को बहुत ही समृद्ध किया है | हिंदी साहित्य में अन्य विमर्शों की भांति प्रवासी साहित्य भी अपनी विशेष पहचान के साथ हिंदी साहित्य में अपनी जड़ें जमता हुआ नजर आ रहा है | हिंदी भाषा में किसी विशेष शक्ति और आकर्षण का ही कमाल है कि आज न केवल भारतीय साहित्यकार बल्कि विदेश में बसे भारतीय लेखक भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम हिंदी को बना रहे हैं, जिसके फलस्वरूप हिंदी साहित्य संसार दिनोदिन विस्तृत होता जा रहा है | कमल किशोर गोयनका प्रवासी हिंदी साहित्य के विषय में लिखते हैं कि – 

“आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी प्रवासी साहित्य की उपस्थिति, उसका सर्वेक्षण और विवेचन उसके स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ उसकी प्रतिस्ठा एवं महत्व का प्रमाण है | वास्तव में हिंदी प्रवासी साहित्य तो हिंदी साहित्य की एक शाखा है और यदि हम इस शाखा को काट देंगे तो हिंदी की जड़ें कैसे मजबूत हो सकेंगी | हिंदी भाषा और साहित्य की जड़ें चाहे स्वदेश में हो या परदेश में, वह मजबूत तभी होंगी जब उसकी शाखाएं फूलवती और फलवती होंगी | हिंदी प्रवासी साहित्य हिंदी के विराट संसार का अंग है |” 

कमल किशोर गोयनका – प्रवासी साहित्य गवेषणा (अंक–१०३), जुलाई-सितम्बर -२०१४, पृष्ठ. ११

सर्जनात्मक प्रतिभा संपन्न उषा राजे सक्सेना का जन्म २२ नवम्बर १९४३ में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में हुआ था | एक कवित्री एवं कथाकार के रूप में पिछले तीन दशकों से इंग्लैंड में बसी उषा जी प्रवासी भारतीय लेखक के रूप में ख्यातनाम हैं | वे ब्रिटेन की एक मात्र हिंदी साहित्य त्रैमाषिक पत्रिका ‘पुरवाई’ की सह-संपादिका एवं हिंदी समिति यु.के. की उपाध्यक्ष हैं | सन् २००२ में प्रकाशित ‘प्रवास में’ कहानी संग्रह में कुल दस कहानियां संगृहीत हैं | विदेश में रहते हुए भी उन्होंने सात समंदर पार बसे भारतीय लोगों के जीवन की मर्मस्पर्शीय गाथाएं अपने इस संग्रह में प्रस्तुत किया है |

प्रवास में

इस संग्रह की प्रथम कहानी ‘प्रवास में’ है जिसमे  लेखिका ने एक ऐसे युवक का चित्रांकन किया है, जो विदेश में रहते हुए लगातार अपने व्यक्तित्व को ऊँचाइयों पर पहुँचने का प्रयास करता है और इस प्रयास में सफल होने के लिए अक्सर वह लेखिका से भी राय लेता रहता है | लेखिका के अनुसार-

“प्रतिभाशाली और तरक्की पसंद शशांक अपने आतंरिक एवं बाह्य व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने के लिए अक्सर मुझसे मशविरा लेता है | अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण बोलने के सही तरीके तथा भाषा को सुधारने एवं माँजने के लिए उसने ‘ओरिएंट स्कूल ऑफ़ लैंग्वेजेज’ का सहारा लिया”

उषा राजे सक्सेना – प्रवास में, प्रवास में, पृष्ठ. १७

शशांक ने अपने प्रगति में आने वाली प्रत्येक समस्या का बड़े ही साहस से सामना किया | विदेशी धरती एवं वहां के लोगों के साथ सामंजस्य बिठाने के लिए ब्रिटिश समाज के कायदे-कानून, रीति-रिवाज वगैरह को भी गहराई से जाना एवं अपने जीवन में आत्मसात करता है और ब्रिटिश सिविल सर्विस में वह एक महत्वपूर्ण विभाग में नियुक्त होता है किंतु कुछ ही दिनों में विदेशी धरती पर उसे पराया कर दिया जाता है | उसके प्रतिभा को दबाने के लिए उसके साथ छल किया जाता है और उसके ही सहकर्मी बड़ी ही चतुराई से उसे नौकरी से बेदखल करवा देते हैं | उसकी पत्नी शैलजा अपने पति के साथ हुए इस विश्वासघात के बारे में लेखिका से बताती है – 

“दीदी, उनके साथ बहुत अन्याय हुआ | उन्होंने सदा सबका भला चाहा | …….. उनकी वरिष्ठता , प्रतिभाशक्ति का आयस और उसका समुचित प्रयोग जो पहले उनके गुण थे, बाद में वही उनके अंग्रेजी साथियों के आँखों की किरकिरी बन गई |” 

उषा राजे सक्सेना – प्रवास में, प्रवास में, पृष्ठ. २३

इस विश्वासघात के कारण प्रशांत घोर निराशा में डूब जाता है, उसका आत्मविश्वास एक झटके में चूर-चूर हो जाता है और अंततः वह शांति की खोज में तिब्बत चला जाता है |

 शैलजा लेखिका से शशांक पर लगाये गए आरोप के विषय में बताते हुए कम्पित स्वर में कहती है कि अविश्वसनीयता का आरोप लगाकर उसे अनंत काल के लिए वेतन सहित निलंबित कर दिया गया है | इस प्रकार विदेशी धरती पर शशांक को पराया कर उसके संपूर्ण प्रतिभा को पूरी तरह नस्ट कर दिया गया | शशांक के साथ हुए इस षड्यंत्र से लेखिका बेहद आहत होती हैं | ऐसा प्रतीत होता है मानो लेखिका अपनी इस कहानी के माध्यम से विदेशों में बसे उन सभी भारतीयों की मनोव्यथा का चित्रण प्रस्तुत करती हैं जिन्हें वर्षों तक के अपने खून पसीने के एवज में पल-पल परायेपन का एह्साह दिलाया जाता है |

शुकराना

इस संग्रह की दूसरी कहानी ‘शुकराना’ में शुकराना नामक लड़की के अपने देश से विस्थापन का दर्द, भूखे और नंगे दर-दर भटकने, युद्ध का आतंक और अपने ही पिता द्वारा तिरस्कार एवं उसकी माँ द्वारा बच्चों का पेट पालने के लिए अपने जिस्म तक को नीलाम करने की बेबसी आदि का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया गया है | 

बारह वर्षीय शुकराना की अचानक एक दिन लेखिका से एक कार्निवल शो की जगह मुलाकात होती है और उन दोनों के बीच आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो जाता है | दरअसल बोसनिया और सर्ब के बीच हुए युद्ध के कारण उसका परिवार इंग्लैंड में सरण लेने के लिए विवश होता है | जहाँ उसके परिवार की स्थिति बेहद ख़राब हो जाती है | यहाँ तक कि उसकी पढाई  भी छूट जाती है | लेखिका को उससे हमदर्दी हो जाती है और वह शुकराना तथा उसके भाई को खाना भी खिलाती हैं | 

अपने प्रति लेखिका के मन में उभरे प्रेम भाव से द्रवित हो वह अपनी सारी आप-बीती लेखिका को सुनाती है | वह बताती है कि किस प्रकार उसकी माँ अपने बच्चों को पालने के लिए स्वयं तो अपना जिस्म बेचती हैं, किंतु बेटी शुकराना को इस तरह के अनैतिक कृत्य से दूर रहने के लिए सदा हिदायत देती है | 

“मेरी माँ कहती है, अगर यही काम मैंने किया तो वह मेरा मुंह कभी नहीं देखेगी और खुदख़ुशी कर लेगी |”

उषा राजे सक्सेना – प्रवास में, शुकराना, पृष्ठ ३३

अपनी माँ के निःस्वार्थपूर्ण प्रेम के विषय में लेखिका से बात करते-करते अचानक उसकी आंख दर्द से आहत हो उठती है | लेखिका समझाती हुई कहती हैं – 

“ठीक कहती है तुम्हारी माँ, उसके लिए तो यह बहुत बड़ी मजबूरी की बात है | एक माँ अपने बच्चों को भूखा नहीं रख सकती | वह उनके लिए अपने जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर भरे बाज़ार में बेच सकती है |”

उषा राजे सक्सेना – प्रवास में, शुकराना, पृष्ठ ३३

लेखिका शुकराना को बहुत समझती हैं कि वह किसी तरह स्कूल जाना शुरू करे जिससे वह अपनी और अपने परिवार की जिंदगी बचा सके | लेखिका के प्रेरणादायक शब्दों का ही कमाल था कि शुकराना पढ़-लिख कर डस्ट-कार्ट ड्राईवर बनती है और अपनी माँ और भाई – बहनों के जीवन में स्थिरता ले आती है |

यात्रा में

अक्सर यात्रा के दौरान हमें अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं, कभी सहयात्री अपनों सा व्यहार करते हैं तो कभी कुछ सहयात्री मात्र यात्री ही बने रहते हैं | इस संग्रह की अगली कहानी ‘यात्रा में’ है जिसमें लेखिका द्वारा अपने सहयात्री के साथ कुछ ही समय में स्थापित बेहद प्रेम भरे सम्बन्ध और उस यात्री के जीवन की विडंबनाओ के प्रति लेखिका ने अपनी मार्मिक संवेदना व्यक्त की है |

भारत आते हुए लेखिका को एयरपोर्ट पर सामान अधिक होने से अधिक सामान के भुगतान के लिए उनसे कहा जाता है, ऐसे में अकेली और डरी सहमी लेखिका का एक सहयात्री उसकी मदद करता है और उन्हें अपने ही साथ का बताता है | ऐसा सुन लेखिका के साथ अभद्र शब्दों में बात कर रही लड़की उनसे माफ़ी मांगती है | कुछ ही समय में लेखिका और उस लड़के के बीच माँ – बेटे सा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है | 

वह यात्री अपनी बेटी ऋचा के साथ छुट्टियाँ मनाने रोमानिया जा रहा होता है | उसके साथ ऋचा की माँ के न होने से लेखिका स्वयं ऋचा  को अपनी गोद में सुलाती हैं | अपनी पुत्री के प्रति लेखिका के इस प्रेम भरे व्यहार को देखकर वह लेखिका से कहता है कि आप के अन्दर अपार प्रेम और ममत्व भरा हुआ है | इस पर लेखिका कहती हैं – 

“हम थोड़ी देर के लिए एक-दूसरे का सुख-दुःख तो बाँट ही सकते हैं | मैं धार्मिक नहीं हूँ, किंतु सदभावना को मैं मानव अथवा किसी भी धर्म का पहला पाठ मानती हूँ | यदि आज संसार में एक-दुसरे के लिए सहज सदभावना एवं संवेदनाएं होतीं तो यह संसार इतना असहिष्णु और संवेदनहीन नहीं होता |” 

उषा राजे सक्सेना – प्रवास में, यात्रा में, पृष्ठ ३९

लेखिका के व्यवहार से प्रभावित वह सहयात्री अपने मन के तमाम हकीकतों से उन्हें परिचित कराते हुए अपने मन की दुविधा, निराशा एवं घुटन के बारे में बताता है कि वह जिस लड़की से प्रेम करता था उन्हीं दोनों की संतान है ऋचा | वह और उसकी प्रेमिका जब पहली बार मिलते हैं, तभी उनके बीच प्रेम हो जाता है | उनकी नजदीकियाँ इतनी बढ़ जाती हैं कि उसकी प्रेमिका गर्भवती हो जाती है जिसकी जानकारी उन दोनों को ही नहीं हो पाती है | कुछ दिनों बाद उसकी प्रेमिका जिस सर्कस में काम करती है वे सब किसी अन्य स्थान पर चले जाते हैं | अतः ऋचा का जन्म उस समय हुआ जब वे दोनों अविवाहित थे |

अचानक कुछ वर्षों के बाद वह अपनी प्रेमिका से पुनः मिलता है, वह उन दोनों की बेटी के बारे में बताती है तब वह अपनी प्रेमिका के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है | लेकिन वह इंकार कर देती है क्योंकि उसे किसी प्रकार का बंधन स्वीकार्य नहीं था और वह अपनी पुत्री को सौप हमेशा के लिए वापस चली जाती है | लेकिन उस व्यक्ति की माँ अपने बेटे की नाजायज औलाद को किसी भी प्रकार से स्वीकार नहीं करती अतः वह स्वयं ही अपनी बेटी को माता एवं पिता दोनों का प्रेम देने का प्रयास करता है |

अभिशप्त

इस संग्रह के चौथी एवं बहुत ही मार्मिक तथा दर्द भरी कहानी है ‘अभिशप्त’ | लेखिका जब छुट्टियाँ मनाने के लिए जाती है, तब उनकी मुलाकात एक ऐसी युवती से होती है जिसके जीवन में आये उतार-चढ़ाव की बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति इस कहानी में हुयी है | कहानी नायिका बेहद आकर्षक, स्वछंद विचारों वाली तथा अपने माँ की इकलौती संतान है | माँ के संस्कारों और वात्सल्य में पली-बढ़ी नायिका के सामने अचानक एक ऐसी गंभीर स्थिति आ जाती है जहाँ वह अपने विवेक-बुध्धि का परिचय देती हुयी अपनी माँ का सिर गर्व से ऊँचा करती है | नायिका अपनी माँ तथा गुरु पंडित विवेकानन्द की सलाह पर लन्दन इलाज के लिए आये  दम्पति एवं उनके बेटे रत्नमणि से मिलती और उस परिवार के संस्कार एवं विवशता को देखते हुए रत्नमणि से विवाह कर लेती है | सुखद दाम्पत्य और अन्य भौतिक सुख सुविधाओं का भोग करते हुए कुछ साल बाद एक पुत्री को जन्म देती है | नायिका का जीवन दुःख से तब भर जाता है जब आभूषण प्रदशनी में शामिल होने के लिए मुंबई आये उसके पति की बाबरी मस्जिद कांड के बाद हुए दंगों में हत्या हो जाती है |

 कुछ वर्षों बाद सास की चचेरी बहन के विदुर देवर से उसका विवाह होने के उपरांत उसका जीवन और भी नारकीय हो जाता है | उसका पति उसे हमेशा शक की नजर से देखता और हमेशा प्रताड़ित करता रहता है | लेखिका से मुलाकात होने पर वह अपने मन की बात उन्हें बताने का काफी प्रयास करती है किंतु पति के खौफ एवं पर्याप्त अकेलापन न मिलने से उनकी बाते पूरी नहीं हो पाती हैं | टुकड़ो-टुकड़ों में सुने नायिका की वेदना से व्यथित हो लेखिका सोचती हैं – 

“यह कैसा विधान ? यह कैसी विडम्बना ? यह कैसा समीकरण ? परिस्थितियाँ और परिवेश ने इस बच्ची को ऐसी मुरगी बना दिया है जिसकी गर्दन को मरोड़ उस दरिन्दे ने अपने हाथ में दबा रखा है और धड को चाबुक मारकर कहता है – दौड़ |”

उषा राजे सक्सेना – प्रवास में, अभिशप्त, पृष्ठ ७३

अंतत: नायिका अपने सौतेले बच्चों के अपमानजनक शब्दों से आहत हो सास के पास लौट जाती है और अपनी नयी जिंदगी का आरम्भ करती है |

दायरे

बेमेल विवाह, दाम्पत्य जीवन में आये तनाव, अकेलापन तथा पारिवारिक कलह आदि का चित्रण ‘दायरे’ नामक कहानी में हुआ है | यात्रा के दौरान लेखिका की एक सहयात्री उन्हें अपनी सहेली के जीवन के तनावों एवं दबावों के बारे में बताती है कि इक उसकी सहेली बहुत ही सीधी-सादी लड़की थी जिसका विवाह बिना उसकी इजाजत कर दिया जाता है और वह अपने पति के साथ सात समंदर पार बरतानिया आ जाती है जहाँ उसका पति उसके लिए कुछ ऐसे दायरे निश्चित करता है जिससे चाहकर भी वह बाहर नहीं आ पाती | वह उस दायरे के साथ जीना सीख लेती है तथा उसकी आदी हो जाती है | अपने दर्द को वह अपनी नज्मों में पिरोती रहती है |

सफ़र में ..

‘सफ़र में ..’ कहानी द्वारा लेखिका ने एक बाईस वर्षीय बेबश, लचर और अपने भीतर असीम पीड़ा को छुपाते हुए भी चेहरे पर मासूम मुस्कुराहट के साथ जी रही शबनम के जीवन की बेहद मार्मिक कहानी का चित्रण किया गया है | अपने सहपाठी के पुत्र के विवाह समारोह के उपरांत सिकंदराबाद से दिल्ली लौटते हुए ट्रेन के महिला कोच में लेखिका की मुलाकात शबनम से होती है | इस डिब्बे में जरूरत से ज्यादा लोग थे जिससे लेखिका को बैठने तक की दिक्कत हो रही थी | 

लेखिका की समस्त परेशानियों को शबनम जल्द ही भांप जाती है और रात होने से पहले उनके लिए आराम से सोने तक का इंतजाम करवाती है | प्रारंभ में लेखिका को उस डिब्बे में बैठे लोगों की भीड़ से परेशानी होती है, उनकी गन्दगी आदि पर क्रोध आता है लेकिन धीरे-धीर लेखिका को उस भीड़ से हमदर्दी होने लगती है और लेखिका उन लोगों के अपनत्व एवं मिलनसार वृत्ति आदि के विषय में सोचती है | इन लोगों के प्रति उनके मन में संवेदना उत्पन्न होती है | लेखिका सोचती हैं –

 “उनके चेहरे निचुड़े हुए थे | उनके बदन पर मांस बहुत कम था | उनके बदन के कपड़े बदरंग थे | उनकी बोली में अजीब सी दास्ता थी ; पर उनमें एक अजीब सा सहयोग था |…. वे लोग मुझे जमीन के लोग लगे | जो कुचले हुए हैं, पर उठे हुए हैं | ये वे लोग हैं जिनके पास जमीन की चुभन है | जिनकी जेंबें फटी हैं, पर उनमें पैबंद लगाने की गुंजाईस है |”

उषा राजे सक्सेना – प्रवास में, सफ़र में .. पृष्ठ, १००

लेखिका धीरे-धीरे शबनम का अपने प्रति लगाव महसूस करती है और अंत में उसे अपना विजिटिंग कार्ड देती है और जब भी जरूरत हो तब यद् करने का आग्रह करती है | 

कुछ दिनों बाद उन्हें शबनम का एक दर्द भरा पत्र मिलता है जिसमें उसने अपनी खुदखुशी के बारे में तथा अपनी बेटियों के बारे में लिखा था कि उसकी गोदी की बेटी का गला दबा कर स्वयं उसके पति ने ही मार डाला | बड़ी बेटी को किसी तरह वह बचा लेती है और मूमानी के पास भेज स्वयं खुदखुशी कर लेती है | साथ ही लेखिका को पत्र में लिखती है कि किसी तरह वह उसकी बेटी को यतीम खाने में भेज दें | पत्र पढ़ लेखिका की आँखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ता है | अंत में लेखिका की माँ शबनम की बेटी का पालन-पोषण करती हैं |

समर्पिता

बेसहारा, बेबस तथा नैराश्य के गहन रोग से पीड़ित तितिक्षा नामक लड़की की कहानी है ‘समर्पिता’ | बेहद आकर्षक व्यक्तित्व वाली तथा मानवीय संवेदना से भरी तितिक्षा के घर लेखिका जब जाती हैं तब वह उनका बहुत आदर सम्मान करती है | लेखिका को तितिक्षा के बैरोनेस बनने की कहानी मालूम पड़ती है कि किस प्रकार बैरोनेस और तथागत के सहयोग से वह नैराश्य रोग से उभरती है और अंत में स्कूल में पढ़ाने लगती है | तथागत उससे विवाह कर उसे मानसिक और शारीरिक बल प्रदान करता है | तितिक्षा अनाथ एवं बेसहारा बच्चों की देखभाल कर उन्हें शिक्षित कर बेहतर जीवन देने का प्रयास करती है |

शन्नो

 ‘शन्नो’ कहानी एक विधवा, बीमार सास एवं दो बच्चों के साथ अकेली जीने के लिए विवश स्त्री की कहानी है | शादी के कुछ ही दिनों के बाद शन्नो का पति शुभाष उसे छोड़कर भाग जाता है और घर की सारी जिम्मेदारी शन्नो पर आ जाती है | सास भी शन्नो को जली-कटी सुनाने से बाज नहीं आती | शन्नो की सास बेटे के इंतज़ार में एक दिन छत से गिर जाती और फिर कभी नहीं उठती | घर की माली हालत देख शन्नो एक स्कूल में कला की शिक्षिका के रूप में नौकरी करती है | 

कुछ समय बाद उसका पति घर आता है और शन्नो तथा दोनों बच्चों को बहला-फुसला कर लन्दन ले जाता है जहाँ बड़े होते शन्नो के बच्चे और उसका पति उसकी अवहेलना करते हैं और अपने में ही जीते हैं | इधर शन्नो दिनों दिन अकेली हो जाती है | बच्चों के साथ बहस के दौरान डाईनिंग टेबल का कोना पेट में धंस जाता है और वह अपने आप को अस्पताल में पाती है जहाँ उसके अपने बच्चे और एक पेशेंट रोबर्टो उसकी देखभाल करते हैं | कला के क्षेत्र से जुड़ा हुआ रोबर्टो शन्नो को अपने साथ कार्य करने के लिए प्रेरित करता है जिसके लिए शन्नो भी तैयार हो जाती है | इस प्रकार प्रस्तुत कहानी संग्रह में मानव जीवन की अनेक समस्याओं, दुःख, पीड़ा, संत्रास आदि का चित्रण कर लेखिका ने उनके प्रति अपनी संवेदना व्यक्त की है |

(Published in : नव-निकष, कानपुर, नवम्बर २०१८ )


Dr. Anu Pandey

Assistant Professor (Hindi) Phd (Hindi), GSET, MEd., MPhil. 4 Books as Author, 1 as Editor, More than 30 Research papers published.

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