थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, किन्नर जीवन का संघर्ष | Third Gender : Hindi kahaniyan – Kinnar jeevan ka Sangharsh

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हिंदी साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श , आदिवासी विमर्शों की ही भांति किन्नर विमर्श आज किन्नरों के जीवन की हकीकतों को परत-दर परत खोलता चला जा रहा है | जहाँ हमारा संपूर्ण समाज स्त्री एवं पुरुष इन्हीं दो वर्गों को समाज की धुरी मान बैठा, है वहीं इन दोनों से पृथक  एक ऐसा वर्ग भी है जो न तो पूर्ण स्त्री है और न ही पूर्ण पुरुष | यह वर्ग है किन्नर का जिसे हमारे समाज में हिजड़ा, छक्का, खोजा और अरावली आदि नामों से जाना जाता है |

परिवार और समाज से परित्यक्त यह किन्नर समुदाय लगातार अपने हक़ तथा अपने वजूद के लिए लड़ता रहता है | समाज का यह वर्ग जो स्त्री एवं पुरुष के मध्यबिंदु पर खड़ा है, अपनी अपूर्णता के कारण समाज में हीन दृष्टी से देखा जाता है | अपनी अपूर्णता के दर्द को तिल-तिल सहते ये किन्नर कभी समाज में अपने हक़ के लिए तो कभी अपने वजूद की पूर्णता के लिए  कभी निज से तो कभी समाज से लड़ते पाए जाते हैं |

सन् २०१७ में प्रकाशित ‘थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां’ नामक कहानी संग्रह में किन्नर जीवन की त्रासदी , अकेलेपन, परिवार से परित्यक्त होने का दर्द और समाज के तिरस्कार को सहते किन्नरों के जीवन का मार्मिक चित्रण किया गया है | इस पुस्तक में इस विषय पर विभिन्न लेखकों की कृतियों का संकलन होने के नाते किन्नरों के विषय में बहुकोणीय दृष्टीकोण परिलक्षित होता है |

बिन्दा महराज

इस संग्रह की प्रथम कहानी शिवप्रसाद सिंह रचित ‘बिन्दा महराज’ एक ऐसे किन्नर की कहानी है जिसके जन्म के बाद उसके माता-पिता चल बसते हैं और जिसके कारण बिन्दा महराज का जीवन अनेक कठिनाइयों से भर जाता है | किन्नर शरीर से भले ही अपूर्ण हों किंतु उसके मन की भावनाएं, संवेदनाएं तथा अपनों के प्रति प्रेम की भावना किसी आम व्यक्ति की ही भांति विद्यमान रहती हैं | बिन्दा महराज अपना सम्पूर्ण प्रेम अपने चचेरे भाई के बेटे करीमा पर न्योछावर कर देते हैं | किंतु अंतत: उसे उसके ममत्व के बदले अपने चचेरे भाई से अपमान ही मिलता है | यहाँ तक कि उसका चचेरा भाई उसे दर-दर की ठोकरें खाने के लिए घर से निकल देता है | यथा- 

“ था ही कौन उसका अपना, जो पैरों में रेशमी बेड़ियाँ डाल कर रोक रखता | माँ-बाप एक प्राण-हीन शरीर उपजा कर चले गए | मर्द होता तो बीवी-बच्चे होते, पुरुषत्व का शासन होता, स्त्री भी होता तो किसी पुरुष का सहारा मिलता, बच्चों की किलकारियों से आत्मा के कण-कण तृप्त हो जाते |”

वाङमय पत्रिका : खंड एक, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, सं. डॉ. एम.फिरोज खान, शिवप्रसाद सिंह, बिन्दा महराज, पृष्ठ २६

बिन्दा महराज अपनी नई जिंदगी की तलास में निकल पड़ते हैं | ऐसे में जिस गाँव में वे  नाच-गाकर अपना गुजर बसर करते थे, उसी गाँव के दीपू मिसिर के बेटे के प्रति उनका ममत्व जागृत होता है | संभवतः उस बच्चे में उन्हें अपने भाई के बेटे की छवि नजर आती होगी |

मिसिर जी का बेटा भी उन्हें बुआ कहकर बुलाता है जिससे बिन्दा महराज का मन अपार स्नेह से भर जाता है | किंतु अचानक दीपू मिसिर के बेटे की मृत्यु हो जाती है | और बिन्दा महराज ओछी मानसिकता एवं अन्धविश्वास से ग्रसित गाँव वालों की आँखों का काँटा बन जाते हैं | लोग उसे डायन तक कहने लगते हैं | स्वयं पर लगाये गए इस लांछन  से व्यथित बिन्दा महराज अन्दर ही अन्दर घुटते-तड़पते रहते हैं | परिणामतः वे अन्य किसी भी बच्चे को अपने समीप तक नहीं आने देते  हैं |

खलिक अहमद बुआ

राही मासूम रजा रचित ‘खलिक अहमद बुआ’ कहानी में भी एक किन्नर के प्रेम, अपनत्व के बदले में उसे मात्र धोखा और अकेलापन ही मिलता है | खलिक अहमद बुआ जिस रूस्तम खां पर अपना सबकुछ लुटा देती है, वह उसे धोखा देता है | अंत में वह उस धोखे के बदले के रूप में रुश्तम खां को मार स्वयं फांसी पर चढ़ जाता है |

इ मुर्दन के गाँव

कुसुम अंसल रचित ‘इ मुर्दन के गाँव’ कहानी में किन्नर जीवन की त्रासदी का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया गया है | इस कहानी के पात्र बिलू का बचपन मात्र इस कारण बर्बाद हो जाता है क्योंकि वह किन्नर है | सिद्धार्थ एवं नीलिमा बीलू के दोस्त थे किंतु उसे नीलिमा के साथ खेलना अधिक पसंद था | लेकिन धीरे -धीरे उसके बाहर आने-जाने पर पाबन्दी, बच्चों के साथ खेलने-कूदने की पाबन्दी उसकी हर इच्छा पर लगाई  गई पाबन्दी का असर यह होता है कि जब कभी उसे नीलिमा के साथ खेलने का अवसर मिलता है तब वह अपने अन्दर बसे गुस्से को नीलिमा के सबसे प्रिय खिलौने पर उतार देता था | किन्नर होने का अभिशाप उसके बचपन को छीन लेता है और अंतत: उसे अपने माँ-बाप से दूर मौसी के साथ विदेश जाना पड़ता है |

आज भी समाज में एक किन्नर की स्तिथि किसी अछूत से कम नहीं मानी जाती | व्यक्ति चाहे कितना  भी उन्नत हो जाये किंतु एक किन्नर के प्रति उनकी दृष्टी निम्न ही रहती है | अपनों से परित्यक्त दर-दर भीख मांगने को विवश किन्नर जीवन के दर्द की अभिव्यक्ति इसी कहानी की एक अन्य किन्नर सलीमा के निम्न वाक्यों से होती है – 

“पता नहीं कब से हमारे जैसे किस्मत के मारे यहाँ रह रहे हैं |  रह क्या रहे हैं, जून भुगत रहे हैं | हमारे समाज में न कोई जगह है, न पहचान ….. हम सब अछूत से भी नीच समझे जाते हैं |”

वाङमय पत्रिका : खंड एक, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, कुसुम अंसल, इ मुर्दन के गाँव, पृष्ठ ५६

मन और शरीर के अन्दर  का दर्द बद्री के जीवन में भी निरंतर उसे सालता रहा है | किन्नर बद्री के जन्म लेते ही, उसकी हकीकत को जानकर उसकी माँ सदमे के कारण मर जाती है | पिता दूसरा विवाह कर लेता है और बद्री पहले अनाथालय और बाद में बड़ा हो जाने पर अपना जीवन जया गुरु की कोठरी में बिताता है |

संझा

किरण सिंह रचित ‘संझा’ एक ऐसे किन्नर की कहानी है जो लगातार तीस वर्षों तक समाज से अपनी  हकीकत छुपता फिरता है | संझा एक किन्नर के रूप में चौगांव के सबसे इज्जतदार आदमी वैद्य महराज के घर जन्म लेता है, और यहीं से संझा के नारकीय जीवन की शुरूआत हो जाती है | उसके माँ-बाप समाज के भय से उसे हमेशा घर की चारदीवारी में ही रखते हैं | संझा के तीन वर्ष की होने पर बीमार और संझा की चिंता में डूबी उसकी माँ की मृत्यु हो जाती है | अकेले वैद्य जी संझा की देखरेख में जी जान से जुट जाते हैं | एक किन्नर को सदा से ही समाज की प्रताड़ना, हीन दृष्टी आदि के सिवाय कुछ नहीं मिलता है | किन्नर को मात्र किन्नर के रूप में ही देखा जा रहा है, उसके भीतर की संवेदना, प्रेम और अपनत्व आदि से समाज कोई सरोकार नहीं रखता |

उम्र बढ़ने के साथ संझा के विचारों एवं भावनाओं में भी परिवर्तन आता है | उम्र के साथ शरीर के हर अंग का विकास तो होता है किन्तु मात्र एक अंग की अपूर्णता उसके समूचे जीवन को बर्बाद करने के लिए काफी था | संझा भी संसार देखना चाहती है | वह पिता की तरह जंगल जाकर औषधियां लाना चाहती है | किन्तु समाज के डर से वैद्य महराज उसे ऐसा नहीं करने देना चाहते | अपने अविकसित अंग की वास्तविकता जानकर संझा का मानसिक संघर्ष दिनोंदिन बढ़ता चला जाता है |

एक दिन वह अपने अपूर्ण अंग को पूर्ण करने के प्रयास में बुरी तरह घायल हो जाती है | किन्नरों के प्रति समाज की मानसिकता, उनकी स्थिति के बारे में जानकर संझा स्वयं को किसी अछूत के समान मानने लगती है | उसकी बढती उम्र के साथ ही लोगों के ताने से परेशान वैद्य जी उसका विवाह ललित महराज के दत्तक पुत्र कनाई से कर देते हैं | चूँकि कनाई नपुंसक था, इससे संझा का भेद नहीं खुलता | किन्तु बसुकि द्वारा कनाई पर लगाये गए बलात्कार के आरोप से उसका भेद खुल जाता है साथ ही संझा के किन्नर होने का भी | गाँव वाले संझा को अपवित्र, पापिन और अछूत आदि कहते हुए उसे मारने पर उतारू हो जाते हैं | 

“चौगांव के लोगों में संझा को नंगा करने की होड़ मची थी | उसकी माँ की सफ़ेद धोती हवा में छोटे-छोटे टुकड़ों में उछल रही थी |” 

वाङमय पत्रिका : खंड एक, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, किरण सिंह, संझा, पृष्ठ ७८

जिन गाँव वालों की सहायता के लिए संझा दिनोंरात जंगल-जंगल भटकती औषधियां बटोरती थी, वे ही गाँव वाले उसे आज नंगा करने पर उतारू हो जाते हैं | भेद खुल जाने के बाद समाज के डर से जिस बंधन से सालों तक बंधी संझा निरंतर मानसिक संघर्ष कर रही थी वह उस बंधन से पूरी तरह आजाद हो जाती है और पूरे गाँव वालों के काले कारनामों को एक -एक कर सबके सामने ला देती है  और स्वयं को स्त्री या पुरुष से कहीं अच्छा मानती है |

हिजड़ा

कादंबरी मेहरा रचित ‘हिजड़ा’ कहानी की रागिनी श्रीवास्तव् जब पंद्रह वर्ष की थी तभी उसकी माँ चेचक की बीमारी के कारण चल बसती है, पिता दूसरा विवाह कर लेता है | और अंतत: रागिनी अपनी  बहन और जीजा के रहमोकरम पर जीने के लिए विवश होती है | रागिनी के जीजा को लोग बहुत भला आदमी मानते हैं | किन्तु जीजा की हकीकत सिर्फ रागिनी ही जानती है | पढाई के खर्च के बदले उसका जीजा उसका शारीरिक शोषण करता है | अपनी बेबसी के कारण ही रागिनी सबकुछ सहती है | वह कहती है – 

“मेरा क्या है …….मुझसे कोई शादी तो करेगा नहीं | ऐसे ही ठीक है | बस पढाई ख़त्म कर लूं | फिर कहीं दूर भाग  जाउंगी | किसी गाँव में टीचर या सोशल वर्कर बन जाउंगी | सौ-दो सौ कुछ तो मिलेगा ही |”

वाङमय पत्रिका : खंड एक, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, कादंबरी मेहरा,हिजड़ा, पृष्ठ ८५

जो पीड़ा उसे अपने पिता, सौतेली माँ और जीजा से मिलती है, कदाचित उस पीड़ा का ही परिणाम था कि एक स्त्री होकर भी वह किन्नर या हिजड़ा बनने पर विवश होती है |

इज्जत के रहबर

डॉ. पद्मा शर्मा रचित ‘इज्जत के रहबर’ कहानी में किन्नर जीवन की वेदना, लोगों द्वारा किन्नरों के प्रति अपमान, शोषण आदि का चित्रण हुआ है | अक्सर किन्नरों पर यह आरोप लगाया  जाता है कि वे अपनी संख्या बढ़ाने के लिए जबरन लोगों का अंग-भंग करके उन्हें हिजड़ा बनाते हैं | इसी प्रकार के आरोप के बारे में जब श्रीलाल सोफिया से पूछते हैं तो वह कहती है – 

“नहीं  लाल जी हमारी संख्या तो ईश्वर बढाता है |  खुदा न करे वह और अधिक संख्या बढ़ाये | हमें कितना कष्ट  है इस योनि में होने का, ये तो हम ही जानती हैं |” 

वाङमय पत्रिका : खंड एक, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, डॉ. पद्मा शर्मा, इज्जत के रहबर, पृष्ठ ९५

श्री लाल के घर से सोफिया का नीजी सम्बन्ध था | अतः जब श्रीलाल की बेटी प्रतिभा का एक गुंडे द्वारा बलात्कार हो जाता है और श्रीलाल गुंडे का नाम जानकर भी समाज के डर से पुलिस में रिपोर्ट नहीं लिखवाते, तब सोफ़िया स्वयं इसका बदला लेती है और उस गुंडे को नपुंशक बना देती है |

कौन तार से बिनी चदरिया

किन्नर रूप में जन्म लेने वाले बालक को ना तो परिवार में कोई जगह मिलती है और न ही समाज में | ऐसे बालक को कभी अपनी इज्जत की वजह से तो कभी समाज के भय से और कभी-कभी ऐसे बालक के प्रति हीनता की भावना के कारण अक्सर माँ-बाप ऐसे बच्चों को त्याग देते हैं |

अंजना वर्मा की कहानी ‘कौन तार से बिनी चदरिया’ में सुंदरी एक किन्नर के रूप में बहुत ही संपन्न घर में जन्म लेती है | उसकी माँ सदा उसे दूसरों की नज़रों से छुपाये अपने पास ही रखती है | एक रात सुंदरी की माँ के सो जाने पर उसके घर वाले उसे खोजा को सौप देते हैं | इससे उसकी माँ बहुत ही दुखी रहती है | किसी भी  माँ की संतान चाहे वह जैसी भी हो, फिर भी उसका प्रेम कभी समाप्त नहीं होता | फिर चाहे वह एक दूसरे से दूर हों या समीप | विडम्बनाएं भले ही उन्हें न मिलने दें, फिर भी एक दूसरे के प्रति लगाव बना ही रहता है | सुंदरी और उसकी माँ तथा बहन कभी-कभार चोरी-छुपे एक दूसरे से मिलते हैं तब उनके मन का दर्द आंसू बनकर बरस पड़ता है |

रतियावन की चेली

ललित शर्मा रचित ‘रतियावन की चेली’ कहानी में पार्वती का भी दर्द वही है जो अधिकतर  किन्नरों की होता है | जन्म के बाद रतियावन द्वारा जबरन पार्वती को घर से ले जाया जाता है और पार्वती पहुँच जाती है ऐसी दुनिया में जहाँ उसकी स्थिति और भी दयनीय हो जाती है | हिजड़ों के साथ-साथ दर-दर नेग के नाम पर भीख मांगना, बदमाश हिजड़ों द्वारा मार-पीट किया जाना, कभी भर पेट तो कभी कई दिनों तक भूखे पेट सोती रही | पार्वती से उसका अपना परिवार तो मिलता-जुलता है लेकिन वह जिस समाज की थी वे ही उसको प्रताड़ित करते थे |

संकल्प

विजेंद्र प्रताप सिंह की ‘संकल्प’ नामक कहानी एक ऐसे किन्नर की कहानी है जो अपने आत्मबल के सहारे ही अपने भाई और पिता का सहारा बनती है | जन्म के साथ ही माधुरी का संघर्ष शुरू हो जाता है | माधुरी के  हिजड़ा रूप में पैदा होने से  न केवल उसके बल्कि उसके समस्त परिवार को भी समाज का तिरस्कार और अपमान सहना पड़ता है | यथा – 

“ उसका हिजड़े के रूप में जन्म लेना कोढ़ में खाज जैसा सिद्ध हुआ उसके परिवार के लिए | एक तो गरीबी दूसरी यह विपत्ति |”

वाङमय पत्रिका : खंड एक, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, विजेंद्र प्रताप सिंह, संकल्प, पृष्ठ १२७

सात वर्षीया माधुरी के सर  से माँ का साया सदा के लिए समाप्त हो जाता है, उस पर नवजात बहन और मानसिक संतुलन खो चुके पिता की समस्त जिम्मेदारी माधुरी के सर पर आ जाती है | बड़ी होने पर माधुरी हिजड़ा समाज से भी संपर्क बनाती है और माधुरी से मधुर बनती है |

एक बार जबरन एक पुलिस द्वारा उसका बलात्कार किया जाता है | बलात्कार पीड़ित माधुरी को डॉक्टर  से जब यह मालूम पड़ता है कि ऑपरेशन के द्वारा वह स्त्री  बन सकती है | वास्तव में माधुरी एक बुचर हिजड़ा थी | इसके बाद तो माधुरी जी जान से पैसे जुटाने में लग जाती है और ऑपरेशन करा के एक पूर्ण स्त्री बनती है और उसके जीवन को अभिशप्त बनाने वाला हिजड़ा शब्द सदा के लिए उसके जीवन से समाप्त हो जाता है |

खुश रहो  क्लिनिक

शून्य से शिखर तक पहुंचे एक किन्नर के संघर्ष की कहानी है ‘खुश रहो  क्लिनिक’ | चाँद दीपिका रचित इस कहानी में जैसा की हमेशा से होता आया है कि किन्नर के रूप में जन्मे अपने संतान को किन्नरों के हवाले कर देना या उसे छोड़ देना दर-दर की ठोकरें खाने तथा भीख मांगने के लिए वैसा ही ऋषि के साथ भी होता है |

ऋषि का जन्म एक संपन्न परिवार में होता है किन्तु उसका किन्नर होना उसके लिए अभिशाप साबित होता है और उसके पिता उसे किन्नरों के हवाले कर देते हैं | उसकी माँ सदा अपने बेटे के लिए तड़पती रहती है | ऋषि जिस माहौल में जाता है, वहां उसका दम घुटने लगता है | किन्नरों के डेरे को देख उनकी स्थिति, उनके दर्द तथा समाज का उनके प्रति संवेदनहीनता आदि का पता चलता है | यथा- 

“न किसी का किसी से सम्बन्ध न खून का रिश्ता, सभी ठुकराए हुए, हालात के मारे हुए, चोरी-चकारी पकड़ कर लाये हुए लोग जो न स्त्री थे न पुरुष थे | फिर भी स्वेच्छा से स्त्री-पुरुष के चोले पहन विचर रहे थे | जो समाज का अनचाहा भाग होकर भी उसका भाग न थे | उन्हें समाज जन्म देता था, पर काटकर देर-सबेर अपने से फेंक भी देता था | जहाँ माता-पिता अपने होकर भी अपने न थे बच्चे अवांक्षित लावारिश थे |”  

वाङमय पत्रिका : खंड एक, थर्ड जेंडर : हिंदी कहानियां, चाँद दीपिका, खुश रहो क्लिनिक, पृष्ठ १३९

किन्नरों के जिस समूह में वह लाया गया था, वहां उसे भी अन्य सभी के साथ बधाई मांगने के  लिए विवश किया जाता है और ऐसा न करने पर उसे मारा-पीटा  जाता है | यहाँ तक कि उसे भूखा भी रखा जाता है | किन्तु ऋषि बधाई मांगने नहीं जाता और पढाई करने की अपनी जीद पर कायम रहता है | अंतत: उसका पालक पिता अर्थात डेरे का उस्ताद मझोले कद वाला व्यक्ति उसे पढाता है | अपनी योग्यता और मेहनत के बल पर ऋषि एक काबिल डॉक्टर बनता है और निश्वार्थ भाव से गरीबों की सेवा और किन्नरों की सहायता करता है |


Dr. Anu Pandey

Assistant Professor (Hindi) Phd (Hindi), GSET, MEd., MPhil. 4 Books as Author, 1 as Editor, More than 30 Research papers published.

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