किन्नर आत्म कथाओं में अभिव्यक्त किन्नर समाज की पीड़ा | Third Gender Biography in Hindi

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हमारे पूरे समाज का ताना बाना स्त्री और पुरुष  इन्हीं दोनों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है मानों इन्हीं से ही सम्पूर्ण समाज का अस्तित्व हो | परन्तु इन पूर्ण पुरुष एवं पूर्ण स्त्री के मध्य एक अपूर्ण एवं उपेक्षित वर्ग भी विद्यमान है | समाज के  अन्य वर्गों के मध्य अपनी पहचान, उपस्थिति एवं अपने अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष करता हुआ, इस स्त्री पुरुष केन्द्रित समाज के नजरिये में परिवर्तन लाने की जद्दोजहद करता हुआ यह वर्ग है उभयलिंगी समुदाय का जिन्हें साधारण शब्दों में  हिजड़ा कहा जाता है | किन्नर समाज अपने अधिकारों के लिए कभी स्वयं से, कभी समाज तो कभी कानून से भी दो-दो हाथ करता है, जिसमें उसे कभी सफलता तो कभी असफलता, कभी निराशा तो कभी सफल होने की आशा में वह लड़ता रहता है |

दरअसल समस्या यह है कि हमारे समाज ने कभी स्त्री एवं पुरुष के अलावा अपने मध्य किसी तीसरे विकल्प के उपस्थिति की परिकल्पना ही नहीं की है, सो सदियों से हमारे मस्तिस्क में घर कर चुकी मान्यताओं से सहज छुटकारा भी तो नहीं पाया जा सकता है | अतः अपने मध्य इस वर्ग की सहज स्वीकार्यता की अपेक्षा करना भी उचित नहीं है किन्तु प्रारंभिक स्तर पर इस समुदाय के प्रति होने वाली अमानवीयता की कठोर निन्दा तथा उनके संघर्ष की सराहना एवं समर्थन अवश्य किया जाना चाहिए |

किन्नर समाज को लेकर सदियों से चली आ रही हमारे समाज में फैलाई गयी भ्रांतियों के कारण उनकी सहज स्वीकृति को लेकर कठिनाइयाँ पैदा हो रही हैं | साथ ही कानून व्यवस्था में इस समुदाय सम्बन्धी प्रावधानों का अभाव भी काफी हद तक इनकी इस परिस्थिति के लिए जवाबदार है | वर्ष २०१४ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ट्रांसजेंडर को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता प्रदान किया जाना  और संविधान में उनके समान अधिकारों को लेकर की जाने वाली पहल को एक ऐतिहासिक कदम माना जा सकता है | परन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है इस समुदाय को अवमानव न मानते हुए उन्हें  शिक्षा आदि से लेकर अन्य प्रकार के सुअवसर प्रदान किये जाना जिससे उनके जीवन में बदलाव लाया जा सकता है | आवश्यकता है हमारी व्यवस्था में इनके हितों को संरक्षण प्रदान किये जाने की, इस समुदाय के प्रति सोच को बदले जाने की | कुछ ऐसे कदम उठाये जाने की जिससे हमारे समाज में उनकी स्वीकार्यता को बल मिले |

किन्नर आत्म-कथा

किन्नर समाज के लोगों को समाज में उचित स्थान दिलाने हेतु इनकी समस्याओं और स्थिति आदि पर गंभीरता से चर्चा एवं जनमानस में इनसे सम्बन्धी चेतना विकसित किये जाने की आवश्यकता है जिसका आगाज दिखाई पड़ने लगा है |  हिंदी साहित्य जगत द्वारा पिछले  वर्षों से छेड़ी गयी जिरह के फलस्वरूप  इस समाज से सम्बंधित मुद्दों को हाथों हाथ लिया गया है | इस वर्ग के लोगों की समस्याओं, किन्नर जीवन के संघर्ष पर काफी कुछ लिखने, पढ़ने तथा उनके जीवन को समझने का साहस किया जा रहा है जो समाज में उनकी स्वीकार्यता को बल देगा |

इस समुदाय की व्यथा को विभिन्न उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से लोगों के बीच उजागर किया जा रहा है जो इनके संघर्ष में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से  सहायक सिद्ध हो रहा है | महेंद्र भीष्म, प्रदीप सौरभ जैसे लेखकों के अतिरिक्त इस समुदाय से जुड़े लोग भी अपनी आत्मकथाओं के माध्यम से समाज के समक्ष अपनी बात को रख रहे हैं | लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ और मनोबी बंद्योपाध्याय की प्रकाशित आत्मकथा ‘पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन’ इसी क्रम में एक साहसिक कदम हैं |

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी

इन दोनों आत्मकथाओं की विशिष्ट बात यह है कि इनमें बड़ी ही बेबाकी के साथ अपने जीवन की सच्चाइयों को अभिव्यक्त किया गया है | ‘मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी’ के पात्र की कथा जहाँ एक ओर इस परित्यक्त समुदाय के जीवन संघर्षों से हमें रूबरू कराती है वहीँ  दूसरी ओर एक विजयी सेनानी की भांति कई ऐसे आदर्श प्रस्तुत करती है, जो इनके अपने समुदाय के लिए एक आदर्श पदचिह्न बनता है | इसका पात्र किन्नर के परंपरागत जीवन शैली को नकारते हुए समाज की मुख्य धारा के लोगों की किन्नरों के प्रति हिकारत की भावना का प्रतिकार करता हुआ, संघर्षमय जीवन के साथ , अवनति से उन्नति की ओर अग्रसर होने का प्रयास करता है । सामाजिक तिरस्कार के बावजूद वह अपने असीम धैर्य के साथ शिक्षा ग्रहण कर एक अलग पहचान बनाता है तथा इस समाज के उत्थान को अपना दायित्व मानते हुए अपनी संस्था के माध्यम से उनके जीवन में बदलाव लाने हेतु कई अभियान भी चलाता है | 

पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

‘पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन’ का पात्र सोमनाथ अपने पुरुष शरीर की कैद से आजादी को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है | हालाँकि सोमनाथ के मनोबी बनने की तीव्र आकांक्षा की उत्पत्ति ही अपने-आप में कई प्रश्न खड़े करते हैं | आखिर सोमनाथ में इस बदलाव की तीव्र उत्कंठा का मूल कारण क्या है ? क्यों इन जैसे लोगों को एक पूर्ण स्त्री अथवा एक पूर्ण पुरुष बनने की चाह हो ? उत्तर बहुत ही स्पष्टत एवं सरल है | उत्तर है समाज में एक पूर्ण स्त्री अथवा एक पूर्ण पुरुष के रूप में समानता का अधिकार, स्वीकार्यता एवं उनके समकक्ष एक जीवन जीने की अपेक्षा | यदि समाज उन्हें उनके उसी रूप में वो सम्मान, अधिकार आदि प्रदान करने में सक्षम हो जाये तो शायद उनके मानस में इस द्वंद्व की उत्पत्ति से निजात पाई जा सकती है | हर क्षण दूसरों से भिन्न, उपेक्षित होने की मानसिक पीड़ा से उन्हें मुक्ति दी जा सकती है | शून्य से शिखर तक पहुँचने के इस अभियान में उसे कई शारीरिक एवं मानसिक यातनाओं तथा सामाजिक तिरस्कार का सामना करना पड़ता है | ये दोनों आत्मकथाएं जीवन संघर्ष के विभिन्न पड़ावों से गुजरते हुए, उनके संघर्ष, पीड़ा और अंतत: सफलता का चित्रण करती हैं |

किन्नर जीवन में परिवार की भूमिका

किन्नर जीवन का सर्वप्रथम संघर्ष प्रारंभ होता है उनके अपने परिवार से | समाज तो बहुत बाद में आता है | लोगों का यह भययुक्त प्रश्न  “समाज क्या कहेगा ?” उनके अपने परिवार द्वारा परित्याग एवं परिहास का कारण बनता है | अक्सर हम पाएंगे की ऐसे लोगों को उनका परिवार समाज में अपनी इज्जत खो जाने के भय से उन्हें बचपन में ही अपने हाल पर जीने के लिए छोड़ देता है |

हमारे समाज में आज भी पुत्र प्राप्ति की कामना बहुत बलवती है और इसे बेहद ही गौरव की बात माना जाता  है | अब आप कल्पना कर सकते हैं कि जब हमारे समाज में एक पुरुष की तुलना में स्त्री को ही दोयम माना जाता हो तो फिर एक ऐसा जीव जो न तो स्त्री है और न ही पुरुष, उसकी क्या दशा होती होगी | हालाँकि ये दोनों इस मामले में खुशकिस्मत रहे हैं कि उन्हें जीवन के प्रारंभिक अवस्था में ही अपने परिवार से परित्यक्त नहीं होना पड़ा जिसके कारण उन्हें एक अच्छी शुरुआत मिली और वे एक ऐसे मुकाम तक पहुँच पाए जो उनके जैसों के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करें |

लक्ष्मी को कभी भी अपने परिवार से तिरस्कार का सामना नहीं करना पड़ा | लक्ष्मी और उसके परिवार की एक दूसरे के प्रति स्वीकार्यता हमारे समाज के समक्ष एक नया उदाहरण प्रस्तुत करती  है । उसके पिता कहते हैं – 

“अपने ही बेटे को मैं घर से बाहर क्यूँ निकालूं ? मैं बाप हूँ उसका , मुझ पर जिम्मेदारी है उसकी | और ऐसा किसी के भी घर में हो सकता है | ऐसे लड़कों को घर से बाहर निकालकर क्या मिलेगा ? उनके सामने तो हम फिर भीख मांगने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं छोड़ते हैं | “

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी

मनोबी भी अपनी आत्मकथा में लिखती हैं कि जब वे अपने पी.एच.डी के कार्य के दौरान उनके जैसे लोगों की शैली को करीब से जानने की जिज्ञासा लिए जब वे रानाघाट के हिजड़ों के साथ जुडी तो उन्होंने पाया कि भारी संख्या में ट्रांसजेंडर अपनी जीविका के लिए वैश्यावृति से जुड़ने के लिए विवश हैं | और उनमें से काफी तो एड्स का शिकार तक हो चुके हैं | उन लोगों की तुलना में स्वयं की बेहद ही अच्छी स्थिति का श्रेय अपने परिवार को देते हुए वे कहती है –

“मैं जगदीश जैसे ट्रांसजेंडर लोगों की तुलना में, स्वयं को बहुत हद तक सौभाग्यशाली मानती हूँ | अगर मेरे परिवार ने मेरे इस विचित्र रूप के बावजूद मुझे सहारा न दिया होता, मुझ पर पढ़ने का दबाव न रखा होता तो भगवान जाने मेरे साथ क्या हुआ होता |”

पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

ये दोनों ही आत्मकथाएं हमारे लिए एक सीख हैं कि इस समुदाय के लोग शारीरिक अथवा मानसिक दृष्टी से किसी भी आम स्त्री अथवा पुरुष से कतई भी भिन्न नहीं हैं  | यदि इन्हें भी पारिवारिक अथवा सामाजिक सहयोग मिले तो ये भी किसी आम इंसान की ही भांति हमारे मध्य एक आम जीवन जी सकते हैं |

किन्नर जीवन और सामाजिक तिरस्कार

लक्ष्मी तथा मनोबी को अपने जीवन के प्रारंभिक अवस्था में पारिवारिक सहयोग भले ही  प्राप्त हुआ हो, परन्तु सामाजिक तिरस्कार का सामना उन्हें भी  करना पड़ा | परिवार की आकाँक्षाओं तथा अपनी अन्य लोगों से भिन्नता का उनके मानस पर इतना दबाव होता है कि वे अलग ही स्तर के द्वंद्व से गुजरने लगते हैं | उसके आस-पास के लोग उन्हें उस रूपमें स्वीकार नहीं कर पाते | उदाहरण के तौर पर जब लक्ष्मी ने अपने  हिजड़ा बनने की बात अपने दोस्तों से बताई तो बहुत से मित्रों ने उससे बात करना ही छोड़ दिया | इस विषय में उसका मानना है कि –

लीक छोड़कर चलने पर इससे अलग और क्या हो सकता था ? मेरे दोस्त भी मुझे समझ नहीं सकते , यह देखकर मुझे बहुत बुरा लगा , पर मैं निराश नहीं हुई । चुनी हुई राह से पलट जाऊँ, ऐसा तो मुझे बिलकुल भी नहीं लगा ।

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी

सोमनाथ को लगभग छह साल की उम्र में ही अपने स्त्रीत्व गुण का आभास होने लगा था और वे अपनी बहनों के कपड़े बड़े ही चाव से पहनते तथा अपनी माँ के श्रृंगार प्रसाधनों का इस्तेमाल भी करते जिसे उनका बचपना समझ भुला दिया जाता | उनकी स्त्रियोचित कोमल शारीरिक संरचना को विरासत में मिला सौंदर्य समझा जाता | अपने स्त्रीत्व को लेकर उनका आत्मविश्वास उनके पिता और परिवार के लिए उपहास का विषय बनता जा रहा था |

पांचवी कक्षा में आते-आते सोमनाथ नौजवानों  के प्रति आकर्षित होने लगे थे | सोमनाथ के मन में अपने पुरुष होने को लेकर इतनी कुंठा थी कि उसे अपने जननांग से नफरत होने लगी | यह तो उनकी उस मनोवैज्ञानिक द्वंद्व का प्रारंभ मात्र था | सोमनाथ में आने वाले बदलाव आस-पास के लोगों से भी छिपे नहीं थे जिसका खामियाजा परिवार के लोगों को तानाकसी सुनकर भुगतना पड़ता था |

किन्नर समाज के उत्थान में शिक्षा की भूमिका

किसी भी आम व्यकित की ही भांति जीवन उत्थान के लिए इस समुदाय के लिए भी शिक्षा एक बहुत ही बड़ा हथियार है | सोमनाथ उर्फ़ मनोबी अपने जीवन के प्रारंभिक काल में ही जान गयी थी कि उनके इस बदलाव की ढाल मात्र शिक्षा ही है | वे कहती हैं –

“ किसी तरह, मैंने अपने भीतर जागने वाली उस लैंगिकता को अपनी बुध्धि पर हावी नहीं होने दिया ; …. मुझे एहसास हो गया था कि केवल इसी तरह से, मैं असमानता की इस जंग को जीत सकती हूँ |”

पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

अपने अस्तित्व को समाज के भय से नकारते हुए जिए जाना वास्तव में बहुत ही कठिन होता है | अतः उन्होंने अपनी शिक्षा के साथ किसी भी प्रकार समझौता नहीं किया | उन्होंने बंगला साहित्य से पोस्ट ग्रेजुएशन के उपरांत पहले एम.फिल और फिर बाद में पीएचडी की उपाधि हासिल की साथ ही शिक्षा को ही व्यवसाय के रूप में चुना |  मनोबी ने रानाघाट के  हिजड़ा घराने की मुखिया ‘श्यामोली’ से प्रभावित होकर ‘अंतहीन अंतरीन प्रोसितोबोर्तिका’  नामक उपन्यास लिखा जो पहले तो विभिन्न एपिसोड्स में उन्ही के द्वारा चलायी जाने वाली “अबोमानोब” नामक भारत की पहली ट्रांसजेंडर पत्रिका में प्रकाशित हुआ और बाद में एक पूर्ण उपन्यास के रूप में सामने आया  |

उन्होंने पहले पत्रकारिता की ओर भी अपना रुख किया जिस दौरान उनके सैकड़ों लेख विभिन्न पत्रों में प्रकाशित हुए | उन्होंने अपने करियर का प्रारंभ पहले स्कूल और फिर बाद मे झाड़ग्राम में कोलेज में लेक्चरर और अब वे नैहाटी के ही एक महिला कॉलेज में प्रिंसिपल के पद पर आसीन हैं | उनकी यह उपलब्धियां और इससे अर्जित की गयी समाज में प्रसिध्धि आर्थिक एवं भावनात्मक दृष्टी से उनका अपना लक्ष्य जो कि अपनी स्त्रीत्व की पहचान को कायम रखना था, संघर्ष के साथ ही सही, उसे पाने में सहायक रही हैं |

इसी क्रम में देखें तो लक्ष्मी भी सुशिक्षित और आत्मनिर्भर इन्सान है | लक्ष्मी स्वयं पढ़ी लिखी हैं तथा उसी के अनुरूप वह अपने किन्नर भाइयों के लिए शिक्षा को महत्वपूर्ण मानती हैं । वह कहती हैं –

“मुझे प्रोग्रेसिव् हिजड़ा होना है …और सिर्फ मैं ही नहीं अपनी पूरी कम्युनिटी को मुझे प्रोग्रेसिव बनाना है ……।”

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी

वे  अपने और अपने समुदाय के हित के लिए  लीक से हटकर चलने में जरा भी संकोच या परवाह नहीं करती | लक्ष्मी अपने कम्युनिटी के हित के लिए बिना डरे और बिना किसी के साथ के ही लड़ना आरम्भ करती हैं | जहाँ कही भी उसे हिजड़ों के हित के लिए खड़ा होना पड़ा, वहाँ वह अडिग रहीं | इस प्रकार लक्ष्मी एक उदहारण हैं कि यदि इस समुदाय के मध्य भी यदि शिक्षा की व्यापक पैठ हो तो उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाये जा सकते हैं |

इस समुदाय की मौजूदा परिस्थिति के लिए हमारे समाज में परिपक्वता का आभाव जितना जिम्मेदार है उतना इस समुदाय का स्वयं को समाज की मुख्य धरा से अलग-थलग रखना भी | यह समुदाय भी समाज की मुख्य धारा से सहज नहीं है | ऐसे ही एक बार जब लक्ष्मी को एड्स की स्थिति के विषय में चर्चा हेतु एक मीटिंग में आमंत्रित किया जाता है तब उसकी गुरु ऐसे किसी भी समारोह में शामिल होने का विरोध करती हुई कहती  हैं

“क्यों जाना चाहिए वहाँ ….क्या जरुरत है इतना सामने आने की |”

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी

किन्तु लक्ष्मी का मानना था कि वे लोग जितना समाज से हिले मिलेंगे उतना ही समाज भी उन्हें जानने पहचानने लगेगा | लक्ष्मी अपने गुरु लता के मना करने पर भी अपने समाज के हित के लिए उस मीटिंग में शामिल होती है | इस तरह वह किन्नरों को समाज से अलग रहने के नियम का विरोध करती है | हमारे समाज में किन्नरों को देखने का नजरिया बेहद अमानवीय रहा है | ऐसा लगता है मानो किन्नर होना बहुत बड़ा अभिशाप हो, वे इन्सान न होकर कोई जानवर हों | इसके लिए लक्ष्मी अपने समाज को भी कुछ हद तक जिम्मेदार मानते हुए कहती है –

इन हिजड़ों से मैं बार-बार कहती हूँ , समाज का हमें देखने का जो नजरिया है, उसके लिए हम भी जिम्मेदार हैं | समाज में घुल-मिल जाओ, उनसे बात करो | फिर देखो, ये नजरिया बदलता है या नहीं |

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी

लक्ष्मी का यह नजरिया साबित करता है की इस समाज के उत्थान हेतु यह आवश्यक है कि उनकी दशा में सुधार समाज और उन जैसे लोगों के परस्पर संवाद से ही संभव है |

यौन शोषण का दंश झेलता किन्नर समाज

सोमनाथ से मनोबी बनने का सफ़रनामा समाज के चेहरे के दोगलेपन चरित्र को उजागर करता है | एक ओर समाज के लोग जो उन्हें तिरस्कृत करते हैं, हिजड़ा आदि कहकर अपमानित करते हैं, वही उनका यौन शोषण कर अपनी काम इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए लालायित रहते हैं | सोमनाथ का कजिन जो अक्सर उसके पिता को सोमनाथ के लिंगदोष को लेकर अपमानित किया करता था, वही उसे अकेले पाकर उसका बलात्कार किया करता था | सोमनाथ ने अपने संबंधों को कभी भी एक समलैंगिक सम्बन्ध नहीं माना है | उन संबंधों में उनकी तरफ से उनका स्त्री सुलभ प्रेम का भाव ही रहा है | परन्तु लोगों ने इसे समलैंगिगकता के खांचे में लाकर फिट कर दिया | उन्होंने इसे स्त्री की भावना का अपमान माना और समाज पर प्रश्नचिहन लगाते हुए कहा कि- 

“आप उन ….पुरुषों को क्या कहेंगे जो छोटे बच्चों का यौन शोषण करते हैं ? क्या संसार उन्हें भी समलैंगिक कहता है ? अधिकतर तो ऐसा नहीं होता | तो ट्रांसजेंडर लोगों को झट से उन खांचों में क्यों डाल दिया जाता है, जो समाज को सुविधाजनक प्रतीत होते हैं ?”

पुरुष तन में फँसा मेरा नारी मन

उनके जीवन में यौन संबंधों की बहुतायता का एक मनोवैज्ञानिक कारण यह भी माना जा सकता है कि वे निरंतर अपने अधूरेपन से जूझती हुयी यही कामना करती रहीं की लोग भी उन्हें उन्हीं की भांति एक स्त्री के रूप में ही स्वीकार करें | एक स्त्री की भांति उन्हें अपने साथी पुरुष से सच्चे प्रेम के साथ-साथ पारिवारिक सुरक्षा की तलाश रही है | परन्तु उन्हें अपने हर प्रेमी से निराशा ही मिली फिर चाहे उनके स्कूल के प्रेमी ‘श्वेत’ और ‘श्याम’ हों या फिर कॉलेज के दिनों के प्रेमी सागर बोस आदि | कईयों के लिए तो वह मात्र एक इस्तेमाल की जाने वाली वस्तु मात्र थी |

व्यावसायिक जीवन में कठिनाइयाँ झेलते किन्नर

सोमनाथ को अपने प्रोफेशनल करियर में भी काफी कठिनाइयों और उपेक्षा का सामना करना पड़ा | छात्र संघ के प्रभावी, रुढ़िवादी और निकृष्ट सोच रखने वाले सहकर्मी एवं छात्र अक्सर उनके खिलाफ साजिश करते |  उन्हें शराबी एवं ख़राब किस्म का व्यक्ति घोषित कर बदनाम करके उनके निलंबन का प्रपंच रचते |  इस षड्यंत्र के खिलाफ वे मजबूती से लड़ीं और जीत के साथ लौटीं |

इसी दौरान अपने सपाट शरीर और एक नारी मन के विरोधाभासी यौन अंग से तंग आ चुकी मनोबी ने अपने सेक्स को बदलने की प्रक्रिया का आरम्भ कर दिया था जिसके लिए वे चिकित्सक की देखरेख में होरमोंस लेना आरम्भ कर चुकी थीं | हालाँकि सर्जरी के जरिये स्त्री काया पाने की ललक को छोड़ देले की सलाह उनके कई हितैसियों ने दी किन्तु वे अपने फैसले पर अडिग रहीं और अंतत सफल रहीं | यही तो उनका  लक्ष्य था उनका, अपनी पूर्णता को पा लेना जिसमें वह सफल रहीं |

इसी प्रकार लक्ष्मी भी अपने जीवन  का वह प्रसंग साझा करती हैं जो समाज के कुछ तबके का उन जैसे लोगों के प्रति संवेदनहीनता और अमानवीय व्यवहार को दिखाता  है | उन्हें बस छेड़े जाने और शोषित किये जाने वाला जीव समझता है | जब लक्ष्मी डांस सिखाने के लिए जाती हैं तब कई लड़के उनके कमरे में घुस आते हैं और उनके साथ जबरजस्ती करने का प्रयास करते हैं | लेकिन वह किसी प्रकार वहाँ से भाग निकलती है |

प्रायः ऐसे हादसे लोगों को निराशा की गर्त में  धकेल देते  हैं और इंसान इसे अपनी नियति मान निरंतर शोषित होता रहता है | परन्तु यह वाकया उसके जीवन को एक नयी दिशा तथा समाज के उस तबके से लड़ने की ताकत प्रदान करता है | वह सोचती है –

“मुझे प्रतिकार करना सीखना होगा | मैंने मन-ही-मन- लड़ने की तैयारी की |”

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी

लक्ष्मी स्वयं की ही भांति अपने जैसेअन्य लोगों को भी समाज द्वारा किये जाने वाले दुर्व्यहार का प्रतिकार करने के लिए प्रेरित करती है |

रुढियों का प्रतिकार करता किन्नर समाज

लक्ष्मी जब किन्नर समाज को अपनाती है उसके पश्चात वह उस समाज की भी कई मान्यताओं एवं रुढियों का प्रतिकार करती है | उसके खिलाफ संघर्ष करती है उन्हें उचित सामाजिक न्याय दिलाने के लिए,उनके जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए |  किन्नरों में यह मान्यता है कि एक बार जो भी इस समाज का हिस्सा बन जाता है, वह अपने परिवार से सारे रिश्ते तोड़ देता है या उनका परित्याग कर देता है । उनके समाज के रसुखदार गद्दियों के स्वामी उन्हें परिवार से मेल-जोल की अनुमति नहीं देते हैं | लक्ष्मी की गुरु भी उसे हिदायत देते हुए कहती है –

“घर मत रहो, यहाँ हम हिजड़ों के साथ रहो | हमें जो बातें  नहीं करनी चाहिए, वो बातें वहाँ घर में तुम्हें करनी पड़ती हैं |  …हम ना स्त्री हैं, ना पुरुष …..स्त्री पुरुषों के समाज के नहीं हैं हम | क्यों रहना है फिर उनके साथ ? “

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी

परन्तु लक्ष्मी इसका एक अपवाद है | लक्ष्मी अपने गुरु की बात को तवज्जो न देते हुए लगातार अपने परिवार के संपर्क में बनी रहती है |इस समुदाय के लोग भिक्षावृत्ति या बधाई लेने के काम के अभाव में  देह व्यापार में लिप्त हो जाते हैं जिसके कारण वे एड्स जैसी गंभीर बिमारियों से ग्रसित हो जाते हैं और एक हिजड़ा होने के कारण उनके स्वास्थ्य की भी परवाह नहीं करता | अतः लक्ष्मी हिजड़ों द्वारा हिजड़ों के लिए  ‘दाई वेलफेयर सोसाइटी’ नामक संस्था की स्थापना कर  उनके हित में कार्य का प्रारंभ करती है | वह कहती है –

“बस्ती के हिजड़ों को अच्छा लगता था | उनके स्वास्थ्य के बारे में , उनकी जिंदगी के बारे में कोई फिक्र कर रहा है , यही उनके लिए काफी बड़ी बात थी | पर हिजड़ा कम्युनिटी के मुखिया , नायकों का इसको लेकर विरोध था | ….पर खुद काम करने वाले हिजड़े अब हमें बहुत अच्छा रिस्पांस देने लगे थे |”  

मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी

लक्ष्मी ‘दाई वेलफेयर सोसाइटी’ की पहली अध्यक्षा बनी | उसकी संस्था इस समुदाय के लिए बहुत से काम करती थी | उनकी समस्याओं और उनकी पीड़ाओं को समाज के सामने रखती थी | सामाजिक काम के क्षेत्र में उनकी सक्रियता के कारण सभी उनसे आदर के साथ पेश आते थे | न कोई छेड़खानी करता और न ही कोई उन्हें नजरअंदाज करता |

लक्ष्मी का मानना है जो सम्मान उसे मिल रहा था, वही सम्मान उसके जैसे अन्य लोगों को भी मिलना चाहिए | लक्ष्मी केवल अपने ही विकास, अपनी ही उन्नति की चिंता नहीं करती अपितु अपने संपूर्ण समाज के लिए संघर्ष करती है, मात्र स्वयं ही दुनिया की नज़रों में ऊँचा उठने की आशा नहीं रखती बल्कि अपने जैसे सभी लोगों को वही मान-सम्मान और ऊंचाई दिलाने की चाह रखती है | लक्ष्मी अपने जैसों को स्वयं ही अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रोत्साहित करती है तथा देह व्यापार से जुड़े हिजड़ों की स्थिति सुधारने के लिए वह राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग  सेमिनारों में, वोर्क्शोप्स आदि में हिस्सा लेती है | इसके लिए वह कभी यूरोप गयी तो कभी टोरंटो | उन्हें यूरोप में एच .आई.वी. एड्स पर होने वाली मीटिंग के लिए यूनाइटेड नेशंस जनरल असेंबली स्पेशल सेशंस में भी बुलाया गया और वह गयी |

निष्कर्ष

मौजूदा समय में हो रहे सामाजिक बदलावों के साथ-साथ इस समाज के लोगों के अपने संघर्ष के परिणामस्वरूप  उन्हें धीरे-धीर वे हक़ मिलने लगे हैं जिनके वे हक़दार हैं | इसके लिए किन्नर समाज ने बहुत कुछ सहा है | उन्हें कानूनी पहचान भी मिलने लगी है | इस प्रकार इनके प्रयासों से  ही आज समाज का इनके प्रति नजरिया बदल रहा है | समाज से मिलने वाला सम्मान, कानून द्वारा मिलने वाले अधिकार, स्वयं इनके द्वारा भी इनके समुदाय की गलत मान्यताओं, रुढियों के निरंतर प्रतिकार के फलस्वरूप हमें आशान्वित होना चाहिए की आने वाले समय में इस समुदाय की स्थिति मे और भी सुधार होंगे |


Dr. Anu Pandey

Assistant Professor (Hindi) Phd (Hindi), GSET, MEd., MPhil. 4 Books as Author, 1 as Editor, More than 30 Research papers published.

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