दिलीप मेहरा की हिंदी कहानियों में व्यंग्य (सामाजिक विसंगतियों पर चोट)

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व्यंग्‍य की उत्पत्ति ही सामाजिक विसंगतियों, विद्रूपताओं, पाखंडों तथा विरोधाभासों से उपजने वाले असंतोष से होती है |  इसके माध्यम से एक रचनाकार अपने अनुभवों तथा अपने आस-पास के परिवेश की विसंगतियों को अप्रत्यक्ष रूप से पाठकों के समक्ष परोसता है | हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं की ही भांति हिंदी कहानियों में व्यंग्य की उपस्थिति भली भांति देखी जा सकती है |

चूँकि अकेले व्यंग्य अपने आप में बहुत ही कड़वा होता है, अतः एक रचनाकार इसे हास्य-विनोद  में लपेटते हुए, हास्य और व्यंग्‍य के सही संतुलन के साथ अभिव्यक्ति का प्रयास करता है | व्यंग्य साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है तथा  विद्वान वर्ग एक अलग विधा के रूप में मानने से नकारते रहे हैं |  उनका मानना है कि यह किसी विधा में मात्र एक स्पिरिट के रूप में मौजूद रहती है | हालाँकि यह सामान्य बोल-चाल की भाषा में काफी समय से विद्यमान रही है किन्तु साहित्य में इसका प्रवेश काफी समय बाद हुआ |

आरंभिक युग के हिंदी संत-साहित्य में ‘कबीर’ इसके प्रणेता माने जाते हैं | उनकी रचनाओं में व्यंग्य के माध्यम से उस काल के समाज में विद्यमान आडम्बर, रूढ़िवादिता, गरीबी-अमीरी आदि विसंगतियों पर प्रहार देखा जा सकता है | उदाहरण के तौर पर वे लिखते हैं कि –

“कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय| ता चढ़ि मुल्ला बांगि दे क्या बहरा हुआ खुदाय |”

राम किशोर शर्मा- कबीर ग्रंथावली (सटीक ), पृष्ठ १०४

उस काल में जब धार्मिक रूढ़ियों को न मानने वालों का सर तक कलम कर दिया जाता हो, इस तरह की बात करना, एक अत्यंत ही साहस का कार्य था | 

बाद में भारतेंदु जी और उनके समय के अन्य रचनाकारों जैसे बद्रीनारायण चौधरी, बालमुकुंद गुप्त, प्रेमचंद, निराला आदि ने हिंदी साहित्य को व्यंग्य से परिपूर्ण रचनायें प्रदान कीं | समकालीन साहित्य के दौर में भी लगातार सामाजिक विसंगतियों पर चोट करती हुयीं व्यंग्यात्मक रचनाओं का सृजन हो रहा है |

हाल ही में डॉ. दिलीप मेहरा जी की कुछ व्यंगात्मक रचनायें हाथ लगीं | आप सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर के पद पर आसीन हैं तथा साहित्य लेखन में भी विशेष रुचि रखते हैं | उनकी अबतक कुल १९ आलोचनात्मक  पुस्तकों के साथ ही एक संस्मरण भी प्रकाशित हो चुका है | 

वे साहित्य-वीथिका नामक अर्धवार्षिक पत्रिका के सम्पादन कार्य से जुड़े हैं | साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कई व्यंग्यात्मक कवितायेँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं | उनकी रचनाओं में आधुनिक शिक्षा के व्यवसायीकरण और संस्थानों में चल रही लालच से भरे भ्रष्ट लोगों की मिली-जुली सरकार, शिक्षा को मात्र जीविकोपार्जन का स्रोत माननेवालों, तथा समाज में व्याप्त अन्य छोटे-छोटे मुद्दों पर व्यंग्‍य परिलक्षित हुआ है  | यहाँ हम मेहरा जी द्वारा रचित उनकी हिंदी कहानियों में व्यंग्य के कुछ छोटे किन्तु बेजोड़ अंशों का अवलोकन करेंगे |

मैं पीएच.डी हो गया हूँ !

हालाँकि माना जाता है कि शिक्षा किसी व्यक्ति के जीविकोपार्जन मात्र से जुड़ा हुआ नहीं हैं, वरन वह व्यक्ति के आत्मउत्थान के लिए भी उतना ही आवश्यक है | परन्तु सत्य इसके सर्वथा विपरीत ही है | हमारे समाज में लोग इसे मात्र और मात्र व्यवसाय से जोड़कर ही देखते हैं | 

मेहरा जी की ‘मैं पीएच.डी हो गया हूँ !’  नामक रचना एक ऐसे ही व्यक्ति की सोच पर कटाक्ष करती हुई उसके पूर्ण व्यवसायिक सोच को उजागर करती है जो सरकार के द्वारा इजाफे को बंद कर दिए जाने के उपरांत अपनी पीएच.डी की डिग्री को व्यर्थ मानने लगता है | 

इस रचना में सरकार में बैठे लोगों की सोच पर भी व्यंग्‍य किया गया है मानों, लोग मात्र सरकारी इजाफे के लिए ही शिक्षा ग्रहण कर रहे हों | प्रारंभ में पीएच.डी की डिग्री इस तरह से दी जा रही थी मानों, किसी मंदिर के बाहर  प्रसाद का वितरण किया जा रहा हो | यथा –

 “ हर फैकल्टी में अध्यापक इस तरह पीएच.डी हो रहे हैं, जैसे जमीन की दर से निकलती धड़ा-धड़ चीटियां |” 

डॉ. दिलीप मेहरा – ताप्तीलोक , अक्टूबर, २००७, पृष्ठ १०

धड़ल्ले से पीएच.डी हो रहे अध्यापकों से चिंतित सरकार एक आकस्मिक-सर्वदलीय बैठक बुलाकर सत्य शोधक समिति का गठन करती है और बाद में उसके सुझावों के मद्देनजर सरकार से दिए जाने वाले इजाफे को बंद करने के साथ-साथ पीएच.डी के स्तर को भी सुधारने का निर्देश देती है | सरकार के इस निर्णय से व्यथित शंकर अपने मित्र से यह कहता  है कि जिसके लिए उसने उपाधि ली वह मकसद पूरा नहीं हुआ | 

पीएच.डी होने के नाते उसे गौरव की अनुभूति जरा भी नहीं हैं बल्कि वह सरकारी इजाफे के बंद हो जाने से ज्यादा दुखी है | मित्र की सलाह पर वह कार्यकारी प्रिंसिपल बनने की सोचता है | उसका मित्र इससे जुड़ी एक समस्या को उससे साझा करते हुए कहता है-

“आपको ट्रस्टी मंडल के आगे-पीछे दुम हिलानी पड़ेगी”“दुम क्या होती है  ?”“पूंछ, यार |”“वह तो पशुओं को होती है | मैं तो समाज का श्रेष्ठ शिक्षित व्यक्ति हूँ |” ….“जिस दिन तू कार्यकारी प्रिंसिपल बन गया, उस दिन दुम अपने आप उग निकलेगी | फिर हिलाते रहना |” 

डॉ. दिलीप मेहरा – ताप्तीलोक, अक्टूबर,२००७, पृष्ठ ११

यहाँ हमारे शैक्षणिक संस्थानों और उसके ट्रस्टियों की कार्यशैली पर व्यंग्य किया गया है | आज हमारे शैक्षणिक संस्थानों में हमारी सरकार और राजनैतिक दलों की ही भांति भाई-भतीजावाद अपने चरम पर है | आपकी शैक्षणिक योग्यताओं से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि आप उस संस्थान के कर्ता-धर्ता के लोगों के कितने सगे हैं | शंकर के अथक प्रयास और जोड़-तोड़ एवं राजनैतिक दबाव  के बावजूद अंततः ट्रस्टी के जमाई को आचार्य के पद पर नियुक्त कर लिया जाता है |

कलियुग के भगवान

‘कलियुग के भगवान’ नामक रचना डॉक्टरों के बिज़नेस माइंडेड होने और उनकी मरीजों के प्रति लापरवाही पर उंगली उठाती है | साधारण सी बीमारी के लिए भी मरीजों के जीवन की परवाह न करते हुए, अपना उल्लू सीधा करने वाले डाक्टरों पर कटाक्ष किया गया है | शंकर लाल अपनी पत्नी के प्रसव हेतु चिंतित है, अतः वह अपने मित्र से इस सन्दर्भ में सलाह लेता है | वह डॉक्टरों के रवैये को लेकर चिन्तित है | वह अपने मित्र को यह भी बताता है कि किस प्रकार आवश्यकता न होने पर भी उसकी भाभी के प्रसव के दौरान उनका ऑपरेशन कर दिया जाता है | डोनेशन से बने डॉक्टरों के प्रति अपनी चिंता जाहिर करते हुए वह कहता है –

 “आज कल डोनेशन वाले चिकित्सकों ने तो रिकॉर्ड ही तोड़ दिया है | वे दर्दी के साथ क्या नहीं करते …! ……वे लोग ऑपरेशन तो करते हैं लेकिन ऑपरेशन करते समय कोई न कोई निशानी जरूर छोड़ते हैं |………कैची, रूमाल, ब्लेड वगैरह |’ ४

डॉ. दिलीप मेहरा – अहल्या, फरवरी ,२००९, पृष्ठ. २४

यहाँ भ्रष्ट शिक्षा प्रणाली से निकलने वाले डॉक्टरों पर व्यंग्यात्मक चोट की गयी है |

विदाई समारोह और शंकर की उलझन

‘विदाई समारोह और शंकर की उलझन’ में व्यक्ति के जीवन की उस अवस्था का जिक्र किया गया है जब या तो वह कार्य से निवृत्त हो रहा हो या मृत्यु को प्राप्त हो गया हो, ऐसी अवस्था में व्यक्ति के व्यवहार को नजरअंदाज करते हुए हर कोई उसकी तारीफों के पूल बांध देता है | इस रचना में ऐसे ही प्रसंग पर कटाक्ष करने का प्रयास किया गया है | 

कॉलेज के कार्य से निवृत्त हो रहे नटवरलाल के विदाई समारोह में बोले जाने वाले वक्तव्य तथा उसमें न चाहते हुए भी तारीफ करने की विवशता से व्यथित दो सहकर्मियों के संवाद को दर्शाया गया है | नटवरलाल के विषय में जानते हुए भी कि उसने पूरे जीवन चमचागिरी के हथियार से अपने सहकर्मियों को परेशानी में डाला है, हरिराम अपने दूसरे सहकर्मी शंकर को इस समारोह में उसके विषय में अच्छी बातें बोलने की हिदायत देता है | शंकर साफ-साफ मना कर देता है और कहता है कि वह हमेशा से ही स्पष्ट वक्ता रहा है अतः वह  जो भी बोलेगा, सच ही बोलेगा | इस पर हरिराम उसे समझाते हुए कहता है –

 “भाई, हम लोग सामाजिक प्राणी हैं | समाज भले अमुक बाबत में रूढ़ रहा हो, लेकिन ऐसे समारोह में कोमलता धारण कर लेता है | कोई सामाजिक प्राणी देह त्याग करता है, चाहे वह गुंडा-बदमाश क्यों न हो, लेकिन उसके मरने के पश्चात तो सब तारीफ ही करते हैं |” 

डॉ. दिलीप मेहरा – अहल्या, मार्च ,२००९, पृष्ठ. १०

परन्तु शंकर अपनी जिद पर कायम ही रहता है | उन दोनों के मध्य इस विषय पर चर्चा आगे बढती है और वे दोनों सामान्यतः ऐसे लोगों की प्रवृत्ति पर चर्चा करते हैं | शंकर कहता है –

“……..अब तो वह यहाँ से जा रहा है | अब तो हम सुख चैन से रह सकते हैं |”“यह तेरी गलत-फहमी है | ऐसे लोगों को ट्रस्टी मंडल कोई न कोई ओहदा दे देते है, जिससे वह जिंदगी-भर चमचागिरी कर सके |…..ऐसे लोगों को तो भगवान भी ऊपर जल्दी नहीं बुलाता | वे भी डरते हैं कि ऐसे लोग यहाँ आकर गड़बड़ी शुरू न कर दें |”

डॉ. दिलीप मेहरा – अहल्या, मार्च,२००९, पृष्ठ. १०

शंकर इस सम्भावना से इंकार नहीं कर पाता है | अंततः वह भी अपनी बात पर कायम नहीं रह पाता | इसे भय कहें या आधुनिक दौर की दूरदर्शिता, शंकर अपनी प्रवृत्ति के विपरीत जाकर समझौता करने का निर्णय लेता है |

मेहरा जी की अगली रचना ‘मकान पुराण’ का शीर्षक ही अपने आप में एक कटाक्ष है | किसी नयी जगह पर किराये के मकान को ढूँढना बहुत ही मुुश्किल कार्य होता है | ऊपर से मकान मालिक के नखरे को झेलना तथा उसके मालिकाना दंभ को सहना बहुत ही विकट कार्य है | इस रचना का पात्र शंकर लाल ऐसी ही समस्या से परेशान है | वह कहता है –

 “ जितनी सरकारी नौकरी लेने में मशक्कत होती है, उससे भी अधिक किराये का मकान ढूँढने में करनी होती है और जितनी सावधानी प्राइवेट नौकरी में रखनी होती है, उससे भी अधिक सावधानी किराये के मकान में रखनी होती है |”

डॉ. दिलीप मेहरा – शोध दिशा, मार्च,२००८, पृष्ठ. ४८

शंकर पहले किरीट भाई नामक व्यक्ति से मकान किराये पर लेता है | कुछ समय बाद उन्हें शंकर के घर यदा-कदा आने वाले मेहमानों से दिक्कत होने लगती है और उससे मकान को खाली करने की बात करते हैं | शंकर से कभी किसी मकान मालिक को उसके पड़ोस के परिवार से अच्छे सम्बन्ध से दिक्कत होती है, तो किसी मकान मालिक को उसके द्वारा फोन पर ऊँची आवाज़ में बात किये जाने से तो किसी को उसकी जाति से परहेज है | 

अंतत: मित्र की सलाह पर शंकर जैसे-तैसे अपना मकान बनाने का निर्णय लेता है | इस पूरी रचना में शंकर और उसके मित्र के मध्य होने वाले इस विषय से सम्बंधित संवादों से हमारे समाज में रहने वाले अजीबोगरीब सोच रखने वालों का चरित्र उभर कर सामने आता है |

सौदा

‘सौदा’ कहानी एक ऐसे लड़के की कहानी है जो मानसिक तथा शारीरिक रूप से कमजोर है | नटुकी माँ का अर्थ के अभाव तथा निजी लापरवाही के कारण देहांत हो जाता है जिससे उसके पिता पर सारी जिम्मेदारी आ जाती है | प्रायः जैसा हमारे समाज में होता है, नटु के पिता की भी मुख्य चिंता बेटे के विवाह को लेकर रहती है | बहुत मसक्कत के बाद नटु का रिश्ता शांता से तय होता है जिसका पहले ही दो विवाह हो चुका था और वह आज एक विधवा का जीवन जी रही है | 

शांता का पालक भाई उस लड़के की सारी सच्चाई जानने के बावजूद इस विवाह के लिए राजी हो जाता है, जिसके लिए वह नटु के पिता से एक अच्छी रकम की मांग करता है | यहाँ स्पस्ट हो जाता है कि लड़की का भाई हर समय उसका सौदा ही करता रहा है | कहानी का यह प्रसंग एक स्त्री के प्रति समाज के रवैये का पर्दाफाश करता है | विवाह के तय होने पर आस-पास के लोग लड़के के पिता से यह कहते पाए जाते हैं कि वैसे भी तुम्हारी पत्नी मर चुकी है और तुम्हारा लड़का किसी काम का नहीं है, अतः इस विवाह से उसे ही लाभ होगा | 

यह हमारे समाज की एक स्त्री के प्रति घटिया सोच को उजागर करता है | खैर उनका विवाह संपन्न हो जाता है जिसके उपरांत वह लड़का इस भ्रम में जीने लगता है कि उसके घर के आस-पास आने वाले सभी लोग उसकी पत्नी की वजह से आते हैं | अतः इस विवाह के कारण वह मानसिक और शारीरिक रूप से और भी कमजोर होता जाता है और एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है | डॉ. मेहरा जी की ये रचनाएँ बेहद छोटी भले ही हैं, किन्तु अपने व्यंग्‍य के माध्यम से समाज की बड़ी से बड़ी विसंगतियों पर चोट करती हैं  |

डॉ. अनु पाण्डेय


Dr. Anu Pandey

Assistant Professor (Hindi) Phd (Hindi), GSET, MEd., MPhil. 4 Books as Author, 1 as Editor, More than 30 Research papers published.

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