बाबा नागार्जुन ने मैथिली तथा हिंदी भाषा में अनेकों रचनाओं का सृजन किया है | साहित्यकार नागार्जुन ने संकृत तथा बंग्ला भाषाओं में भी कई मौलिक रचनाकर्म किये तथा साथ ही अन्य भाषाओं की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद भी किया है | नागार्जुन की प्रगतिशील विचारधारा उनके रचनाकर्म में भली-भांति परिलक्षित होती है | उनके उपन्यासों में जनमानस का संघर्ष, उनका दुःख और पीड़ा प्रभावशाली रूप से उभर कर सामने आती है | दुःख-दर्द और संघर्ष से युक्त जिस समाज का चित्र उन्होंने अपनी कृतियों में खींचा है, वह उनका अपना भोगा हुआ जान पड़ता है | अंचल में निवास करने वाले लोगों के रहन-सहन, आस्था, मान्यताएं आदि का उनकी रचनाओं में उचित स्थान दिखाई पड़ता है |
रतिनाथ की चाची
उपन्यास | रतिनाथ की चाची |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1948 |
‘रतिनाथ की चाची‘ उपन्यास मिथिलान्चल की विधवा नारीयों को दयनीय दशा को अभित्रित करता है | साथ ही यह उपन्यास प्रेम, वात्सल्य और राग-द्वेष की अनुभूतियों से सम्मुक्त मानव की कमजोरियों और उन कमजोरियों के बीच से उपजी ताकत को रेखांकित करता है | रतिनाथ की चाची उपन्यास की नायिका गौरी के निजी व्यक्तित्व को केन्द्र में रखकर यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार समाज में एक विधवा को हर तरफ से प्रताड़ित किया जाता है | इस उपन्यास में नागार्जुन ने विधवा जीवन की त्रासदी को अभिव्यक्त किया गया है |
उपन्यास की नायिका गौरी का जन्म एक दरिद्र कुल में हुआ था | इस कारण उसके पिता ने बैद्यनाथ झा की कुलीनता को देखकर गौरी का विवाह उसके साथ कर दिया | किन्तु गौरी को वैवाहिक जीवन का सुख अधिक समय तक नहीं मिल सका | एक पुत्री प्रतिभा और एक पुत्र उमानाथ के रहते ही उसके पति ने हमेशा के लिए उससे विदा ले ली थी | गौरी का पुत्र उमानाथ जब बड़ा हुआ तब वह अपनी माँ से दूर रहने लगा | गौरी के विधुर देवर जयनाथ का पुत्र रतिनाथ उसके साथ रहता था |
गौरी विधुर देवर के साथ रहती थी | देवर के प्रति उसका व्यवहार माँ जैसा था किन्तु उसका तरुण देवर अपनी काम-वासना का शिकार गौरी को बनाता है जिससे वह गर्भवती हो जाती है | गौरी के असहाय, पीडित, अपमानित जीवन की करुण कथा का प्रारम्भ यहीं से हो जाता है | देवर द्वारा किए गये इस अमानवीय कार्य से पीड़ित वह सबसे अपना मुँह छिपाती फिरती है | चमारन के पास अपना पेट हलका करवाकर गौरी पुनः अपने घर आ जाती है किन्तु समाज से बहिष्कृत होने के साथ-साथ उसे अपने बच्चों से भी तिरस्कृत होना पड़ता है | गौरी को एकमात्र स्नेह रतिनाथ से मिला | अन्त में हैजे से पीड़ित होकर गौरी की मृत्यु हो जाती है | रतिनाथ ही चाची का अन्तिम संस्कार करता है और अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित कर देता है |
विधवा जीवन पर रचित अनेको उपन्यासों में रतिनाथ की चाची में गौरी के माध्यम से वर्णित विधवा का जो करुणात्मक चित्र अंकित किया गया है, वह पूरे हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है |
बलचनमा
उपन्यास | बलचनमा |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1952 |
बलचनमा नागार्जुन का द्वितीय उपन्यास है | बलचनमा एक गरीब खेतिहर मजदूर की त्रासद आत्मकथा है, जिसमें समूची कथा प्रथम पुरुष में कही गई है | बलचनमा गोदान की परम्परा का उपन्यास है क्योंकि उसका नायक बलचनमा प्रेमचन्द के होरी की तरह ही जमींदारों एवं सामन्तों के शोषण उत्पीडन का विरोध करने के लिए किसानों को संगठित करने का भी प्रयत्न करता है | कथानक में तत्कालीन परिस्थितियों का चित्रण किया गया है |
उपन्यास की समग्र कथा कथानायक बलचनमा के इर्द-गिर्द घूमती रहती है | जब बलचनमा चौदह वर्षका था तब आम चुराने के जुर्म में मालिक द्वारा की गई पिटाई में उसके पिता की मृत्यु हो जाती है | परिवार की सारी जिम्मेदारी उस पर आ जाती है | बलचनमा का भाग्य उसे उसी कसाई जमींदार की भैंस चराने के लिए विवश करता है | बचा खुचा खाना और मालकिन की गालियों से उसका पेट भरता था | मझले मालिक बलचनमा के उस छोटे से खेत को हथिया लेना चाहते थे जिससे उनका गुजारा चलता था | मालिक द्वारा खेत के बदले दुगुनी जमीन के प्रस्ताव को जब दादी ने ठुकरा दिया तब माँ से जबरन जमीन हड़प ली |
बलचनमा सोलह सत्रह वर्ष की उम्र में फूलबाबू के साथ पटना जाता है, जहाँ उसके रहन सहन में परिवर्तन आता है | फूलबाबू के नमक आन्दोलन में गिरफ्तार होने पर बलचनमा अपने गाँव लौट आता है | एक दिन मालिक रेबनी के साथ बलात्कार करना चाहते हैं लेकिन रेबनी अपने शील की रक्षा करती है |
उसी वर्ष भयंकर भूचाल आने पर कांग्रेस ने रिलीफफन्ड के नाम पर खूब धन एकत्र किया | जमींदारों द्वारा अशिक्षित एवं गरीब किसानों के शोषण के विरोध में, किसान आन्दोलन शुरु हुआ जिसका नेतृत्व बलचनमा को सौंपा गया | जमींदारों और किसानों के बीच के इस संघर्ष में किसानों की विजय होती है |
नई पौध
उपन्यास | नई पौध |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1953 |
‘नई पौध’ नागार्जुन द्वारा रचित मैथिली उपन्यास ‘नवतुरिया’ का हिन्दी रूपान्तर है जिसमें नवीन सामाजिक चेतना का यथार्थ रूप चित्रित किया गया है | यह उपन्यास स्वतंत्रता के बाद उभरी हुई नई पीढ़ी की जागृति का प्रतीक है | इस उपन्यास में अनमेल विवाह की समस्या के चित्रण के साथ ही उसका उचित समाधान प्रस्तुत किया गया है |
मिथिला में सोरठ का मेला लगता है जिसमें विवाह के इच्छुक वर एवं कन्याओं के अभिभावक आते हैं और विवाह भी निश्चित करते हैं | पंडित खोखा-झा एक ऐसे पात्र हैं जिन्होंने अपनी पाँच कन्याओं के विवाह में अपना उल्लू सीधा किया था | इस बार वह अपनी चौदह वर्षीय पुत्री बिसेसरी का विवाह साठ वर्ष के वृद्ध चतुरानन चौधरी से तय करते है | गाँव में ‘बम पार्टी’ के नाम से पहचाने जाने वाले पाँच सात नवयुवकों के समूह ने इस अनमेल विवाह का विरोध किया | अन्त में बम पार्टी के नायक दिगम्बर अपने मित्र वाचस्पति के साथ बिसेसरी का विवाह करवा देता है |
बाबा बटेरसनाथ
उपन्यास | बाबा बटेरसनाथ |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1954 |
‘बाबा बटेरसनाथ ‘ उपन्यास में नागार्जुन ने एक सौ तीन वर्ष पुराने वटवृक्ष के मानवीकरण द्वारा कथा- शिल्प को चुना है | इस उपन्यास में पहली गाँव के चार पीढ़ियों की कथा का वर्णन किया गया है | उपन्यास में किसानों का एक ऐसा संगठबनाया गया है जो तत्कालीन जमादारों के विरुद्ध एकजुट होकर संघर्ष करता है और उसमें सफल भी होता है |
इस उपन्यास का नायक ‘जयकिसुन’ है | एक सौ तीन वर्ष पुराने इस वटवृक्ष को जयकिसुन के परदादा ने ही रोपा था | इसे लोग प्रेम से ‘बाबा बटेरसनाथ’ नाम से पुकारते थे | टुनाई पाठक और जयनरायन बरगद को कटवाने का प्रयत्न करते हैं |
जयकिसुन और उनके साथी मिलकर इस वृक्ष को न काटने के लिए सहायता मानते हैं | बाबू श्यामसुंदर वकील उन्हें सहायता देते हैं | इस संघर्ष में जनवादी मोर्चे को कांग्रेसी शासन के विरुद्ध विजय प्राप्त होती है | उपन्यास के अन्त में बरगद बाबा जयकिसुन को अन्तिम आशिर्वाद देते हैं | इसका अन्त सिन्दूरों अक्षरों में अंकित तीन शब्दों से होता है ‘स्वाधीनता शान्ति प्रगति’ |
दुखमोचन
उपन्यास | दुखमोचन |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1957 |
‘दुखमोचन’ उपन्यास को प्रकाशन के पूर्व सन् 1956 के जुलाई, अगस्त और सितम्बर माह में आकाशवाणी के लखनऊ प्रयाग केन्द्र ने तेरह किस्तों में समग्र रूप से प्रसारित किया था | प्रोड्यूसर थे भारतभूषण अग्रवाल |
उपन्यास का नायक दुखमोचन एक आदर्श पात्र है | इस उपन्यास को कथावस्तु अनेको घटनाओं, प्रसंगों के माध्यम से आगे बढ़ती है | दुखमोचन व्यवसाय के लिए कलकत्ता जाते हैं और पांच वर्ष के बाद वापस अपने गाँव लौट आने पर अपने गाँव टमका कोईली का नवनिर्माण करना चाहते हैं | दुखमोचन के दो भाई थे सुखदेव और नारायण | तीनों का विवाह हो चुका था | दुखमोचन की दो बेटियाँ थी | पाँच वर्ष पूर्व ही उनकी पत्नी का अवसान हो चुका था | सुखदेव की पत्नी सम्पन्न परिवार की होने से अपने मायके में ही रहा करती थी | नारायण की पत्नी और बच्चे गाँव में रहते थे | वह स्वयं घर से दूर सरकारी विभाग में था | परिवार के लिए तन, मन, धन समर्पित कर देने वाले दुखमोचन की विधवा मामी गाँव में रहती थी |
टमका कोईली में मलेरिया और कालाजार ने तबाही मचायी तब चर्मरोग फैलने पर दुखमोचन ने नेताओं अफसरों, मेडिकल कॉलेज के अध्यापकों व छात्रों की सहायता से गंधक, नारियल के तेल और नीम के साबुन की व्यवस्था करवाई | वह महरियों के वेतन वृद्धि के लिए भी प्रयत्न करते हैं | गाँव में आग लगने पर बेघर लोगों के पुर्नवसन पर भी बहुत परिश्रम करते हैं | 15 अगस्त को ध्वजा समारोह में गाँव के वृद्ध बांधू चाचा के हाथों ध्वज फहराया जाता है |
इस प्रकार उपन्यास में दुखमोचन के प्रयासों से गाँव के नवनिर्माण की कथा वर्णित की गई है |
वरूण के बेटे
उपन्यास | वरूण के बेटे |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1957 |
प्रस्तुत उपन्यास में प्रगतिशील एवं साम्यवादी विचारधारा तथा मछुआ जाति के माध्यम से वर्ग संघर्ष को प्रस्तुत किया है | इसमें मछुआरों के संघर्षों एवं अभावों से भरे जीवन को अत्यंत मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है | इस उपन्यास में मलाही गोढ़ियारी गाँव के मछुआरे किस प्रकार तालाब से मछलियाँ पकड़कर अपना जीवन यापन करते है उसका चित्रण किया गया है | जमींदारी उन्मूलन के बाद इसी पोखर से उनका वर्तमान और भविष्य जुड़ा है | यह संघर्ष ही उपन्यास का विषय है |
मलाही गाँव का मोहन जमीदारों के अत्याचारों के विरुद्ध लोगों को एकत्र करता है | कथा का विस्तार मोहन, माझी, भोला, मंगल एवं माधुरी की कथा, कोसी बाँध की कथा, मंगल का प्रेम आदि से होता है | इस प्रकार उक्त उपन्यास में नागार्जुन ने वर्ग-संघर्ष, राजनीतिक नेताओं की शोषण वृत्ति तथा मछुआ समाज का सर्वागीण चित्रण किया है |
कुम्भीपाक
उपन्यास | कुम्भीपाक |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1960 |
नागार्जुन ने इस उपन्यास में वेश्याओं के जीवन को आधार बनाकर उन स्थितियों की व्यथा का वर्णन किया है, जो वेश्यावृत्ति के लिए विवश कर देती है | साथ ही वेश्यावृत्ति का मूल कारण गरीबी और पूँजी प्रधान सामाजिक व्यवस्था को माना गया है | लेखक ने भारतीय समाज की विसंगति का चित्रण एक ही मकान में रहने वाले छह परिवारों की जीवन कथा के माध्यम से किया है | चंपा जिसे उन्नीस वर्ष की उम्र में गर्भावस्था में वैधव्य प्राप्त होने के कारण उसके रिश्तेदार उसे एक धर्मशाला में छोड़ देते है, जिससे उसका जीवन ‘कुम्भीपाक’ बन जाता है | साथ ही दिवाकर शास्त्री का जीवन, महिम भाभी का उल्लेख प्रकाशकों का शोषण आदि प्रसंगों के माध्यम से कथा निर्मित की गयी है |
कथानक की दृष्टि से ‘कुम्भीपाक’ नागार्जुन की सफल रचना है | जिस समस्या का संकेत रचना के प्रारंभ में लेखक ने दिया है, उसका समाधान भी उपन्यास के अन्त तक आते-आते प्राप्त हो जाता है | इस रचना का कथानक विचार की अपेक्षा घटना पर आधारित है |
हीरक जयंती
उपन्यास | हीरक जयंती |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1961 |
नागार्जुन द्वारा रचित यह उपन्यास सामाजिक विडंबनाओं के साथ-साथ राजनीतिक भ्रष्टाचार को बेनकाब करने के लिए लिखा गया है | स्थान-स्थान पर चलने वाले हीरक जयंतियों के समारोह, मात्र स्वहित के लिए कैसे मनाया जाता है। इसका यथार्थाकन इस कृति का वैशिष्ट्य है |
इस उपन्यास का मुख्य पात्र ‘नरपत बाबू’ एक ऐसा नेता है जो अपने को आम जनता का सेवक बताता है, पर उसी का शोषण करता रहता है | उसी के काले कारनामों का परिचय लेखक ने आत्मकथा के रूप में करवाया है |
उग्रतारा
उपन्यास | उग्रतारा |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1963 |
अनमेल विवाह की समस्या पर आधारित इस उपन्यास की नायिका ‘उगली’ बाल विधवा है, वह कामेश्वर से प्रेम करती है कामेश्वर एक विधुर है | दोनों विवाह कर सुखी जीवन जीने की आशा में एक दिन गाँव छोड़कर भाग जाते हैं | किन्तु पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर दोनों को जेल होती है | उगली को पहले ही जेल से रिहा कर दिया जाता है | जेल से बाहर आने पर हवलदार भभीखन सिंह उगली से विवाह कर लेता है | उगली गर्भवती हो जाती है | जेल से बाहर आकर कामेश्वर उगली को ढूँढ लेता है, और गर्भवती उगली को बिना हिचकिचाहट के अपना लेता है |
इमरतिया
उपन्यास | इमरतिया |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1968 |
‘इमरतिया’ उपन्यास में नागार्जुन ने देश के मठों में किस प्रकार का धार्मिक पाखण्ड और आडम्बर चलता है, इसका चित्रण किया है | इस उपन्यास की नायिका इमरतिया है | वह अनेक ठगों, अपराधियों और साधु-संतों के चंगुल में फँस जाती है | उसके मन में अतृप्त यौन ग्रंथी होने से वह मस्ताराम के प्रति आकर्षित होती है | वह संवेदनशील और कोमल हृदयवाली नारी है | इमरतिया के चरित्र के साथ कथा का विस्तार अनेक घटनाओं के माध्यम से हुआ है, जैसे बलि की घटना, मस्ताराम की गिरफ्तारी, भगौती का बकौल से मिलना आदि इसकी प्रमुख घटनायें हैं | इसी के साथ इसमें अभयानंद की पिटाई, बाबा मस्ताराम की जटायें उतारी जाना, पूँजीवादियों का लोभ आदि का चित्रण हुआ है | सजीव वातावरण का सृजन और जिज्ञासा की क्रमशः संतुष्टि इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है | इस उपन्यास में समाज में व्याप्त अंधश्रद्धा को यथार्थरूप में चित्रित कर उससे सजग रहने की चेतावनी भी दी गई हैं |
पारो
उपन्यास | पारो |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1975 |
नागार्जुन रचित ‘पारो’ उपन्यास मूलतः मैथिली उपन्यास है जिसका पारो नाम से ही हिन्दी में भी रूपांतरण हुआ है | उद्देश्य प्रधान इस उपन्यास में अनमेल विवाह के परिणाम और बिहार के मैथिल जनपद में विवाह की गलत परम्पराओं की आलोचना की गई है |
मैथिल जनपद जहाँ विवाह निश्चित करने की विचित्र प्रथा है , विवाह के लिए यहाँ ‘सोरठ’ का मेला लगता है, जिसमें कन्याओं के अभिभावकों द्वारा वर का चयन किया जाता है | इस उपन्यास की नायिका पार्वती भी इसी समस्या का शिकार है | पार्वती का विवाह पैंतालीस वर्षीय चुल्हाई चौधरी से कर दिया जाता है | प्रौढ़ता के अंतिम कगार पर खड़ा यह पथिक पार्वती को न तो मानवीय रूप से संतुष्ट कर पाता है, न शारीरिक रूप से ही | संपत्ति प्रदर्शन करने वाले पति को पार्वती पति नहीं मानती, अत: यह विवाह के बंधन को तोड़ देती है | जोर जबरदस्ती कोई किसी के शरीर पर कर सकता है, मन पर कतई नहीं | पार्वती भगवान से प्रार्थना करती है –“हे भगवान! लाख डण्ड दे मगर फिर औरत बनाकर इस देश में जन्म नहीं दे। “ उसके हर वाक्य से उसके दाम्पत्य जीवन का असंतोष ही व्यक्त होता है | पार्वती भारतीय परम्परावादी पत्नी की तरह परिस्थितियों से समझौता नहीं करती। उसके प्रत्येक शब्द नारी जाति पर युगों से पुरुष द्वारा किए गए अत्याचारों की कहानी कहते हैं |
गरीबदास
उपन्यास | गरीबदास |
लेखक | नागार्जुन |
भाषा | हिन्दी |
प्रकाशन वर्ष | 1989 |
शिक्षा के माध्यम से गरीब गाँव वालों का विकास तथा हरिजन बस्ती के उत्थान की कथा प्रस्तुत की गयी है | हरिजनों की बस्ती गाँव से कुछ दूर थी | उनकी हालत बेहद खराब थी बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल की व्यवस्था तक नहीं थी | गाँव के अन्य स्कूलों में जहाँ सवर्णों के बच्चे पढ़ा करते थे, वहां हरिजन बच्चों के लिए कोई स्थान नहीं था | अगर कोई बच्चा साहस करके जाता तो उसके साथ तिरस्कार भरा व्यवहार किया जाता | इतना ही नहीं, उनके साथ मारपीट भी किया जाता था | इसी कारण इन गरीब और अछूत बच्चों के लिए गाँव के ही बाबा गरीबदास और लक्ष्मणदास बहुत ही प्रयत्नों के बाद स्कूल खुलवातें है |
एक बार गाँव में डाकू आ जाते है जिससे निपटने के लिए गाँव के निर्गुण मंडल को सचेत करने के लिए घंटा बजाया जाता है | अतः सभी एकत्र होकर डाकुओं को पकड़ लेते हैं और उन्हें पुलिस के हवाले कर देते हैं | इस पर निर्गुण मंडल को 251 और स्कूल के छात्र सुरेश और ललित को 501 रुपये का इनाम मिलता है | धीरे-धीरे गाँव का विकास होता है जिससे गाँव वालों की भी बदहाल हालत बदलती है |