दलित वर्ग के आत्म संघर्ष की कथा : टूटता वहम | Tootata Vaham By : Shushila Takbhore

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हमारा भारतीय समाज सदियों से ही अपनी अनेक सामाजिक विसंगतियों का दंश झेलता चला आ रहा है | फिर चाहे स्त्री की स्थिति हो या जाति व धर्म आधारित वर्ग भेद | इस वर्ग भेद या छुआछूत आदि के परिणाम स्वरूप हमारे अपने लोग अपनी सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था से नित पलायन करते जा रहे हैं | हालाँकि आज स्थिति में काफी सुधार नजर आ रहा है | लोग एक दूसरे  प्रति उनकी जातियों को लेकर काफी सहज दिखाई पड़ते हैं | समाज में उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है | इसका श्रेय जाता है शिक्षा में नित हो रही वृद्धि एवं बदलाव को जिसके कारण लोग इस समस्या के प्रति ज्यादा जागरूक एवं चिंतनशील हुए हैं | 

कुछ लोग इसका श्रेय  कानून को भी दे सकते हैं, किंतु जबरन सिर्फ गले मिला जा सकता है, इससे दिल नहीं मिलते | दलितों एवं उपेक्षित लोगों की स्थिति में परिवर्तन एवं सुधार तब तक नहीं आ सकता है जब तक उच्च वर्ग के लोग अपने उच्च होने के दंभ से बाहर निकल, स्वयं को उस उपेक्षित एवं अपमानित दलित व्यक्ति के स्थान पर रखते हुए उसके भावनात्मक द्वंद्व , पीड़ा आदि को समझने का प्रयास नहीं करते | सभी समुदायों के मध्य भावनात्मक जुड़ाव जितना प्रगाढ़ होगा, यह समस्या भी उतनी ही जल्दी दूर होगी |

जीवन की कुछ घटनाएं ऎसी होती हैं जिनके चोट की गहराई इतनी अधिक होती है कि उसकी अमिट छाप सदैव उस व्यक्ति के दिल पर बनी रहती है जो उसने स्वयं भोगा हो | प्रस्तुत कहानी में लेखिका सुशीला टाकभौरे जी ने निम्न वर्गो,  खास तौर पर दलित जातियों के प्रति उच्च जाति के लोगों की कथनी और करनी के अंतर आदि का चित्रण किया है | दर असल समस्या यह है कि समाज के तथा कथित शिक्षित एवं विचारक वर्ग को यह भय एवं भ्रम है कि यदि उनके आस-पास के लोगों को यह पता चल जाये कि वे भी जातिगत भेदभाव की भावना से ग्रसित है तो लोग उनकी शिक्षा, बुद्धिमता आदि पर उंगली उठाते हुए उन्हें रुढ़िवादी, अजागरूक घोषित करते हुए उनके सर से एक बुद्धिजीवी  होने का ताज न छीन ले | अतः यही भय उन सब के साथ बराबरी का बरताव , जातिगत व्यवस्था आदि को न मानने का स्वांग करवाता रहता है | हालाँकि सदैव ही ऐसा नहीं होता  | हमारे समाज में काफी लोग ऐसे भी हैं जो आज के दौर में इस कुरीति को तिलांजलि दे चुके हैं, किंतु इनकी संख्या कम है | अब विडंबना यह है कि स्वांग करने वालों का पर्दाफाश हो जाने पर पूरे समाज पर तोहमद लगा दिया जाता है कि आज भी दलितों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है , जो की सर्वथा अनुचित है |

लेखिका एवं उनके पति जिस स्कूल में कार्य करते थे वहाँ सभी लोग उन्हें बहुत सम्मान देते थे | संस्था के व्यवस्थापक भी उनके कार्य से बहुत ही खुश रहते थे | स्कूल में रहते हुए उन्हें यह एहसास ही नहीं होता था कि वे दलित जाति के हैं | स्कूल के सभी लोग एक साथ मिलजुल कर खाना खाते, साथ-साथ पिकनिक आदि पर जाते | लेखिका को इस स्वस्थ परिवेश, किसी भी ऊंच-नीच एवं जातिगत भेदभाव से रहित माहौल से बेहद प्रसन्नता होती | 

स्कूल में जब भी कोई मेहमान आता तब उनका और उनके पति का परिचय खासतौर पर करवाया जाता था और परिचय के साथ ही उनकी जाति का जिक्र जरूर किया जाता था | संस्था के व्यवस्थापक यह जरूर कहते कि बाल्मीकि जाति के होते हुए भी हमने इन्हें अपनी संस्था में रखा है | व्यवस्थापक द्वारा हर बार जाति का उल्लेख करना उनके प्रति हीनता का ही सूचक था  और ऐसे में लेखिका का वहम टूटता है कि वर्षों से उन्हें जो मान-सम्मान मिल रहा है वह उच्च जातियों की उनके प्रति की दया-भावना मात्र है, दिखावा मात्र है  | और तब उनका अंतर्मन इस अपमान के दर्द से भर जाता है और वे सोचती हैं  – 

“हमारी जाति का बार – बार उल्लेख करने के पीछे व्यवस्थापक जी का मकसद क्या है? क्या वे हमें दूसरों के सामने नीचा दिखाना चाहते हैं?… जैसे सभी शिक्षक अपनी योग्यता के बल पर शिक्षक बने, वैसे ही हमें भी शिक्षक की नौकरी मिली है।” 

सुशीला टाकभौरे – टूटता वहम, टूटता वहम , पृ.४०

यहाँ लेखिका ऐसे लोगों की ओर संकेत देना चाहती हैं जो दलित जाति के लोगों के प्रति किये जाने वाले अपने अच्छे व्यवहार एवं सहयोग को औरों के समक्ष स्वयं के बुद्धिजीवी, दरियादिल तथा एक संवेदनशील होने के प्रमाण-पत्र के रूप में इस्तेमाल करते रहते हैं | वे यह भूल जाते हैं कि उनके इस कृत्य से अगले व्यक्ति को कितनी चोट पहुंचेगी | यहाँ भी शिक्षक पति-पत्नी का आत्मविश्वास डिगने लगता है और वे विचार में पड़ जाते हैं कि इस विद्यालय में उनकी नियुक्ति का कारण उनकी अपनी शैक्षणिक योग्यता है या उनकी जाति ? जिसे यदा-कदा एक विज्ञापन की तरह इस्तेमाल किया जाता है |

लेखिका जब एक प्रतिष्ठित कॉलेज में प्राध्यापिका के रूप में नियुक्त होती हैं, तब उन्हें वहां के लोगों के व्यवहार तथा आदर से अपनेपन का एहसास होता है | किंतु एक एस.सी. के रूप में उनकी नियुक्ति को उनके सहकर्मी पचा नहीं पाते और उनसे बार-बार उनकी जाति के बारे में पूछते हैं | हालाँकि उनके बारे में जान कर भी सभी उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं | उनके साथ खाते -पीते हैं | अपना टिफिन खोलने के साथ ही उनसे खाने का आग्रह करते हैं | इससे लेखिका अपने इस नए वातावरण में खुश थी | 

एक बार सभी प्रध्यापिकाएं चाय की दुकान पर जाती हैं और सभी एक साथ बैठती हैं | कुछ समय बाद उनके कॉलेज की सफाई कर्मचारी महिला भी चाय पीने आती है और उन्हीं लोगों के पास बैठ जाती है तभी एक ब्राह्मण प्राध्यापिका गुस्से से कहती हैं –  

“क्या मैनाबाई, इतनी जगह छोड़कर तुम्हें यहीं बैठना था क्या?” 

सुशीला टाकभौरे – टूटता वहम, पृ. ४१

लेखिका सफाई कर्मी के प्रति किये गए इस व्यवहार से बहुत दुखी होती हैं | अपनी तथा मैनाबाई की तुलना करते हुए सोचती हैं – 

“ बाई और मुझमें क्या फर्क है ? यही की वह कॉलेज में झाड़ू लगाती है और मैं अच्छे कपड़े पहनकर अध्यापन का कार्य करती हूँ | मैंप्राध्यापिका हूँ इसीलिए ये सभी अपने साथ खाने का आग्रह करती हैं, ….. जबकि बाई इनके नजदीक भी बैठ नहीं सकती | कुछ भी हो, फिर भी हमारी जाति तो एक है …. आत्मग्लानि मेरे ऊपर परत-दर-परत चढ़ती जा रही थी |” 

सुशीला टाकभौरे – टूटता वहम, पृ. ४२

लेखिका के आस-पास के लोगों का दोहरा चरित्र यहाँ उभर कर सामने आता है | एक ही जाति के दो विभिन्न लोगों जिसमे एक व्यवसायिक रूप से सबल है, उसके साथ अच्छा और एक जो आर्थिक आदि रूप से निर्बल है उसके साथ उपेक्षित व्यवहार किया जाता है |

 लेखिका को अपने सहकर्मियों से जो आदर और सम्मान मिलता है उससे वे  बहुत प्रसन्न रहती थी | सभी एक दूसरे के घर खाना खाने आती-जाती रहती  थीं  | लेखिका भी उनके  साथ जाती | लेखिका के मन में जाति का जो बोध बसा था उसके कारण ही वे कभी किसी को अपने घर खाने के लिए आमंत्रित नहीं करती  और कोई न कोई बहाना बनाती रहती | सभी प्राध्यापिकाओं का अपने प्रति अपनापन देख वे एक बार सभी को अपने घर भोजन पर आमंत्रित करती हैं | 

जैसा की सामान्यतः औरों के घर दी जाने वाली दावत में होता था कि कम से कम सात से आठ महिलाएं हाजिरी देतीं, अतः लेखिका भी उसी अनुरूप व्यवस्था करती हैं, किंतु उनके घर खाने के लिए मात्र चार महिलाएं ही आती हैं | सालों से अपनी सहकर्मी प्राध्यापिकाओं के प्रति उनके मन में अपने प्रति के उदार व्यवहार का जो भ्रम था, वह काफूर हो जाता है | चारों में से मात्र दो महिलाएं ही भोजन करती हैं | ये वे महिलाएं थी जो बहुजन समाज से थीं | एक महिला केवल मीठे मात्र का ही आग्रह रखती है अतः उसके लिए बाजार से कलाकंद मगवाया जाता है | तीसरी महिला जब चतुर्थी व्रत की वजह से मात्र दूध पीने की इच्छा जाहिर करती है तब लेखिका सोच में पड़ जाती हैं कि- 

“केवल नाम मात्र के लिए मेरे घर आना पूरे समय चुप्पी साधे रहने और भोजन के समय कहना- मेरी तो चतुर्थी है | मन में लगा, ‘ यह मेरे घर के भोजन का बहिस्कार तो नहीं ‘”| 

सुशीला टाकभौरे – टूटता वहम, पृ. ४४

अपने प्रति समाज के दोगले व्यवहार का वहम मात्र उन्हें ही दुखी नहीं करता वरन उनके पति भी समाज के इस दोगले व्यवहार के कारण दुखी हैं | लेखिका के पति अपने एक मित्र शर्मा जी के साथ मिलकर एक पोश  कॉलोनी में प्लाट खरीदने का निर्णय करते हैं लेकिन खरीद नहीं पाते | उनके पति इस सिलसिले में कई बार शर्मा जी के घर जाते है, किंतु शर्मा जी हर बार आज-कल करते हुए टालमटोल करते रहते हैं | 

लेखिका के पति को इस बात का भ्रम है कि यह सौदा उनके हाथ से इसलिए निकल गया क्योंकि शर्मा जी ने इस सौदे में देरी कर दी | इससे लेखिका और उनके पति को बहुत अफ़सोस होता है | अपने सहयोगी शिक्षक से प्लाट न खरीद पाने की विवशता और शर्मा जी के देरी कर देने की बात जब उनके पति करते हैं तब उनके वह शिक्षक मित्र बताते हैं कि- 

“ भैया बताना मत, … उसने पहले दिन ही सोच लिया था कि तुम्हारे साथ प्लाट नहीं खरीदेगा | भले ही जिंदगी भर किराये के मकान में रहेगा मगर अच्छा मकान मिले तब भी तुम्हारे पड़ोस में नहीं लेगा |” 

सुशीला टाकभौरे – टूटता वहम, पृ. ४५

लेखिका दम्पति शर्मा जी के इस व्यवहार और सोच से बहुत ही दुखी होते हैं  | जिस मकान का सपना संजोये वे बार-बार शर्मा जी के यहाँ जाते, उनसे प्लाट खरीदने का आग्रह करते रहे, उसे मात्र उनकी दलित जाति के कारण ही प्राप्त नहीं हो पाता |

प्रस्तुत कहानी में दलित समाज के लोगों के प्रति के समाज के ओछे बर्ताव तथा दोहरी मानसिकता का उद्घाटन किया गया है | इस कहानी के पात्र अपने प्रति हो रहे इस बर्ताव का खुलकर प्रतिरोध करने की बजाय इस बर्ताव से दुखी होते हुए स्वयं से आत्मसंघर्ष करते हुए दिखाई पड़ते है |  आज आवश्यकता है हमारे संपूर्ण समाज को एक साथ एकजूट होकर ऐसी विसंगतियों के प्रतिकार करने की | एक ऐसे आदर्श समाज की परिकल्पना करने की जहाँ जाति, धर्मं आदि से परे इन्सान और इंसानियत को ज्यादा महत्त्व दिया जाता हो |

डॉ. अनु पाण्डेय

Dr. Anu Pandey

Assistant Professor (Hindi) Phd (Hindi), GSET, MEd., MPhil. 4 Books as Author, 1 as Editor, More than 30 Research papers published.

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