“टप्प … आंगन में पहली बूंद गिरी | बूंद की आवाज ने उस छोटे से टूटे-फूटे मकान के अन्दर दहशत भर दी | उस साधारण सी आवाज में कितनी दहशत भरी थी | आवाजें या दृश्य अपने आप में दहशत नहीं, वह स्थितियां, जिनमे वह पैदा हो रहे हैं, उनके साथ मिलकर यह दहशत पैदा करते हैं | वरना तो इसी टप्प की आवाज पर जाने कितने गीत, कितनी कवितायेँ रच दी गईं हैं | कहीं इस आवाज को पायल की रुनझुन बताया गया, तो कहीं बूंदों की छम-छम | इनकी आवाज में जिंदगी की संगीत ढूँढा जाता है और आज इसी आवाज में मौत का शोक गीत है | यह आवाज डरा रही है, आज यह भयावह है |”
पंकज सुबीर – अकाल में उत्सव
अकाल में उत्सव उपन्यास के इस अंश से अपनी बात का प्रारंभ करने का मुख्य कारण है – यह उपन्यास का वह क्षण है जब कथा के प्रवाह में बहता हुआ पाठक अचानक इन बूंदों की मार और उस भय को महसूस करने लगता है | बेमौसम बरसात की स्थिति में कमोबेस अधिकतर भारतीय किसानों की यही मन:स्थिति रहती है | जब सबकुछ दांव पर लग चुका हो, प्रजातंत्र के गिद्ध अपनी गर्दन को उसके मांस को नोचने की ऊंचाई तक तान चुके हों और ऐसे में उसकी एक मात्र आस, खेतों में लहलहाते सोने पर बारिस की बूंदों का प्रहार सीधे उस किसान के दिल पर चोट करती है | उसके बच्चों के मुंह से छीनता हुआ निवाला, सुनार की भठ्ठी में पिघलता पत्नी का पुस्तैनी आखिरी गहना जो इसी के आसरे छुड़ाया जाना था महाजन से आदि कई भयावह दृश्य कुछ पलों में उसके सामने नाच जाते हैं | एक किसान की उस पीड़ा, उस दर्द का हम और आप मात्र अनुमान ही लगा सकते हैं, वो भी सटीक तो बिलकुल भी नहीं |
इस एक घटना पर दो भिन्न पक्षों का नजरिया है | भय उस किसान को है जो जानता हैकि इसके पश्चात वह मृत्यु के अत्यधिक करीब आ चुका है और दूसरी ओर भय उसे भी है जो जिले के राजा अर्थात अंग्रेजी व्यवस्था से पूर्ण चरित्रों के साथ, बिना किसी बदलाव के, भारतीय व्यवस्था में दत्तक ले लिए गए अधिकारी का जिसे कलेक्टर कहा जाता है | इसे भय है कि इस बारिस की वजह से जिले में आयोजित किये जाने वाले महोत्सव में व्यवधान न उत्पन्न हो जाये | यह मोड़ कृषक समाज के लिए करुणा और देश की व्यवस्था के प्रति क्रोध दोनों एक साथ उत्पन्न करता है |
उपन्यास का नाम (Novel Name) | अकाल में उत्सव (Akaal mein Utsav) |
लेखक (Author) | पंकज सुबीर (Pankaj Subir) |
भाषा (Language) | हिन्दी (Hindi) |
प्रकार (Type) | कृषक विमर्श (Krishak Vimarsh) |
प्रकाशन वर्ष (Year of Publication) | 2017 |
जब कभी हम समाचार चैनलों पर, वातानुकूलित कमरों में, सूट-बूट और टाई बांधे, जिन्हें शायद धूल से भी प्रत्यूर्जता हो, ऐसे विशेषज्ञ देश के किसानों की स्थिति पर आंकड़ों में उलझे हुए ज्ञान बांटने का प्रयास करते हैं, तो वाकई हास्यास्पद लगता है | कई बार तो यह भी लगने लगता है कि लच्छेदार शब्दों से खेलने वाले ये लोग क्या वाकई में किसानों की बदहाली से अवगत है ?
पंकज सुबीर का अकाल में उत्सव उपन्यास देश के किसानों की वास्तविक और भयावह स्थिति का चित्र प्रस्तुत करता है | फिर चाहे वह उनकी आर्थिक हैसियत हो, सामाजिक रीति-रिवाज, उनको लेकर प्रशासनिक लचरपन, पंगु सरकारी नीतियां जो उन्हें उबारती कम मारती ज्यादा हैं या प्रजातंत्र की पैदाइश जोंक जैसे बिचौलिए, सूदखोर, महाजन आदि द्वारा दी जाने वाली पीड़ाएं | इस उपन्यास में दो कहानियां एक दूसरे के सामानांतर चल रही है | एक कहानी है सूखापानी गाँव के किसान रामप्रसाद की जो एक छोटे स्तर का किसान है और दूसरी कहानी है उसी क्षेत्र के कलेक्टर श्रीराम परिहार की जो टूरिज्म डिपार्टमेंट के फण्ड को इस्तेमाल करने हेतु उत्सव के आयोजन को लेकर इस कदर उलझे हुए हैं कि वे लगभग भूल चुके हैं कि एक जिले के कलेक्टर की और भी जिम्मेदारियां होती हैं, विशेषकर आम जनता के प्रति | तार्किक दृष्टी से देखा जाय तो एक जिले के कलेक्टर और किसान दोनों का सरोकार, एक दूसरे से काफी हद तक होना चाहिए था, परन्तु पूरे उपन्यास में मात्र तीन जगह ये पात्र एक दूसरे के सम्मुख आते हैं |
रामप्रसाद कर्ज के बोझ से दबा हुआ है | बीवी कमला के चंद गहनों को छोड़कर बाकी सब या तो बिक चुके हैं या सेठ, महाजनों के पास गिरवी रखे जा चुके हैं | दरअसल आजादी के बाद जो व्यवस्था हमने बनाई और अपनाई, उसे बस कॉपी पेस्ट ही किया है | ऐसा लगता है मानों हमारे अपने लोगों की आवश्यकताओं और समस्याओं को समझा ही नहीं गया | आजादी के पूर्व भी सूदखोरों, महाजनों का आतंक था, आज भी है | बदलाव कुछ खास नहीं आया | वास्तविकता यह है कि इस उपन्यास के पात्र रामप्रसाद की ही भांति देश का लगभग
“हर छोटा किसान किसी न किसी का कर्जदार है, बैंक का, सोसायटी का, बिजली विभाग या सरकार का | सारे कर्जों की वसूली …. पटवारी और गिरदावरों को करनी होती है | वसूली कितना खौफनाक शब्द है, यह कोई कर्जदार ही बता सकता है | किसान, कर्जा, कलेक्टर और कुर्की चारो नामों को एक साथ लेने से भले ही अनुप्रास अलंकार बनता है, लेकिन यह किसान ही जानता है इस अनुप्रास में जीवन का कितना बड़ा संत्रास छिपा हुआ है |”
पंकज सुबीर – अकाल में उत्सव
किसान के लिए वास्तव में वह स्थिति भी घातक होती है जब वह यह उम्मीद लगा बैठता है कि उसकी फसल अच्छी आने वाली है खासकर ऐसी अवस्था में जब उसकी खेती पूरी तरह ईश कृपा पर निर्भर हो | अगर यह उम्मीद नहीं रहे तो वह जेवर को गिरवी रखने की बजाय सीधे बेच दे ताकि उसे उसकी सही कीमत और ब्याज के चक्र से मुक्ति मिले | रामप्रसाद भी इसी प्रकार के चक्र में फंसता है | बिजली के बिल के भुगतान सम्बन्धी पत्र मिलने पर कमली अपना आखिरी बचा हुआ गहना, पैरों का तोड़ा निकालकर रामप्रसाद को देती है ताकि वह उसे बेंच सके | रामप्रसाद उसे बेचने की बजाय गिरवी रखकर पैसे लाता है और उस बिल का भुगतान करता है | मान्यताओं और रीति-रिवाजों में अत्यधिक विश्वास करने वाला रामप्रसाद व्यय के चंगुल से आसानी से नहीं छूट पाता है | उसे ज्ञात होता है कि उसके बहनोई की माँ बीमार है तो वह अपना बचा-खुचा रूपया लिए सहायता के लिए निकल पड़ता है | बहनोई राजेश और रामप्रसाद दोनों उसे शहर के अस्पताल में ले जाते हैं जहाँ फिर से सरकारी महकमे का क्रूर चेहरा प्रकट होता है | अस्पताल का वार्ड-ब्याय उनसे अच्छे इलाज से सरकारी डॉक्टरों के निजी क्लिनिक पर जाने की सलाह देता है मानों उसे बिचौलिए की तरह इस्तेमाल किया जाता हो | सरकारी डॉक्टरों की लापरवाही से राजेश की माँ की मौत हो जाती है |
“यह केवल भारत में ही होता है कि मृत्यु के कष्ट से ज्यादा कष्ट उसेक बाद होने वाली यातनाओं से होता है | परम्पराएं जब सड़ जाएँ, गल जाएँ तो उन्हें उतार कर फेंक देना चाहिए, न कि किसी धर्म नाम के छद्म के नाम पर अपने शरीर पर, अपनी आत्मा पर चिपकाएं रखना चाहिए |”
पंकज सुबीर – अकाल में उत्सव
रामप्रसाद के ऊपर अब एक और जिम्मेदारी आ जाती है, एक भाई होने के नाते अपनी बहन की सास की मौत पर नुक्ता देने की | यह अतिरिक्त खर्च का भार उसे हिलाकर रख देता है | पैसों की कोई और व्यवस्था न हो पाने पर यह किसान दम्पति अपने पुरखों वह आखिरी निसानी, तोड़े को बेचने का निर्णय लेता है |
“कमला की तोड़ी बिक गई | बिकनी ही थी | छोटी जोत के किसान की पत्नी के शरीर पर के जेवर क्रमशः घटने के लिए होते हैं | और हर घटाव का एक भौतिक अंत शून्य होता है, घटाव की प्रक्रिया शून्य होने तक जारी रहती है |”
पंकज सुबीर – अकाल में उत्सव
कमला के तोड़े को सुनार रामप्रसाद के समक्ष टुकड़े-टुकड़े काटकर भठ्ठी में पिघला देता है | इससे प्राप्त पैसों से कमला अपनी ननद के घर जाकर पूरे विधि विधान से सभी रस्मों को पूरा करती है | यह उपन्यास उन धर्म के ठेकेदारों का भी पर्दाफास करता है जो धर्म की आड़ में भगवान का भय दिखाकर गरीब किसानों से उगाही करते हैं | हास्यास्पद यह है कि नए मंदिर के निर्माण अथवा पुराने मंदिर के जिर्नोध्धर की शपथ बाबाजी लेते हैं और उस कार्य के लिए चंदा वसूला जाता है बिचारे गरीब किसानों से | धर्म के ठेकेदारों का यह पाखंड गरीब किसानों के लिए और मुसीबत बनता है |
अकाल में उत्सव उपन्यास राजनैतिक व्यवस्था को भी कटघरे में लाकर खड़ा करती है जो जब मंचासीन होती हैं तो किसानों को रिझाने हेतु अलग-अलग जुमलों का प्रयोग करते हैं मसलन आप ही हमारे अन्नदाता हैं, माटी के लाल हैं वगैरह | परन्तु वास्तव् में ये लोग किसानों की बदहाली को लेकर जरा भी चिंतित हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता | १९७५ की तुलना में एक सरकारी महकमे में कार्य करने वाले व्यक्ति के वेतन में लगभग सौ गुना की वृद्धि हुई है | महंगाई भी काफी बढ़ गई, किंतु न्यूनतम समर्थन मूल्य में तुलनात्मक रूप से कोई वृद्धि नहीं है | इस दृष्टी से देखा जाय तो सरकारें जो सब्सिडी के नाम पर महज कुछ टुकडे फेंक कर स्वयं की पीठ थपथपाती हैं, वो वास्तव में इस किसानो से ही सब्सिडी ले रही हैं | उन्ही के रहमोकरम पर जी रही हैं |
“नेहरू ने कहा था कि यदि देश की तरक्की देखनी है तो किसान सैक्रिफाइज करे लेकिन यह नहीं बताया की कब तक करे ? आज तक वह किसान सैक्रिफाइज करता आ रहा है | … अर्थशास्त्री कहते हैं कि यदि अनाजों का, किसानों की उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढाया गया, तो मंहगाई बढ़ जाएगी …… तो जनता में दहशत फ़ैल जायेगी |”
पंकज सुबीर – अकाल में उत्सव
अब प्रश्न हैं कि क्या किसान इस देश की जनता नहीं हैं क्या ? जिस जनता में यह दहशत फैलेगी, किसान उसका हिस्सा नहीं हैं ? आबादी के दृष्टी से क्या इनका संख्याबल बहुत कम है ? और अगर हो भी तो ये कहाँ का न्याय है कि एक को खुश रखने के लिए दूसरे की बलि दे दो | ये दहशत का हवाला देकर किसानों को दिए जाने वाले समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी के खिलाफ विरोध दर्ज कराने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी या अर्थशास्त्री कभी उनकी लागत पर भी चर्चा करते हैं ? वे यह क्यों नहीं देखते कि उन अनाजों का उपयोग कर उन्हें अन्य रूप में ढालकर व्यवसाय करने वाली कंपनियों के लिए कोई समर्थन मूल्य क्यों नहीं है ? उन्हें मनमाना क्यों छोड़ रखा गया है ? यह मजाक नहीं है तो और क्या हैं कि यदि डेढ़ रूपये किलो के भाव से मिलने वाली मक्का से कॉर्न-फ्लैक्स बनाकर बहुरास्ट्रीय कंपनियां तीन सौ रूपये किलो के भाव से बेंचती है तो कोई व्यवस्था है उन पर भी अंकुश लगाये जाने की ?
“हैरत की बात है कि खेतों में दिन रात परिश्रम करने वाले किसान के लिए तो न्यूनतम समर्थन मूल्य तय है किंतु, दवाओं का कहीं कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं है | जो मर्जी आए छापो और बेंचो | डॉक्टर दूसरी मिलती-जुलती दवाई लाने पर मना कर देता है |”
पंकज सुबीर – अकाल में उत्सव
सरकारों का मात्र किसानों के प्रति किया जाने वाला यह पक्षपातपूर्ण रवैया वाकई में समझ से बाहर है |
यह उपन्यास सरकारों और उसके संचालन के लिए बनायीं गई मशीनरी की सोच और कार्य शैली पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है | रमेश और मोहंन राठी का यह संवाद कि-
“यह पटवारी, यह गिरदावर, यह सब सरकारी जोंके हैं, जो किसान के तन पर चिपकी हुयीं उसका खून चूस रही हैं | क्या इन कलेक्टरों को नहीं पता कि इनके हाथ के नीचे क्या गन्दा खेल चलता है ? सब पता होता है मगर, हर इक लूट का बस यह किस्सा होता है, लूट के माल में सबका हिस्सा होता है ….|”
पंकज सुबीर – अकाल में उत्सव
इस भ्रष्ट व्यवस्था पर एक सटीक टिप्पणी है | ऐसा प्रतीत होता है मानों पूरा का पूरा सरकारी तंत्र बिचौलियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों बिक चुका हो वरना उनका इतना निरंकुश होना संभव नहीं है | अपनी कठिनाइयों से जूझते हुए किसान किसी तरह अपने उपज को जब बाजार तक ले जाते है तो उन्हें जितना संभव हो, योजनाबध्द तरीके से कम-से-कम भाव में ही समेटने का काम किया जाता है | किसान के बाजार में पहुँचते ही खरीदारों का गुट आपस में यह निर्णय ले लेता है कि किसे किस भाव में समेटना है | किसान बिचारा, यदि फसल को वापस लेकर आये तो भी उसके ख़राब हो जाने का डर | थक-हारकर उसे इस व्यवस्था के सामने झुकना ही पड़ता है | जिस प्रकार से एक किसान को हर स्तर पर सरकारी महकमे से कठिनाई का सामना करना पड़ता है, जैसे बीज की कमी, खाद की कमी, अन्य चीजों का समयसर उपलब्ध नहीं होना आदि, ऐसा लगता है मानों यह किसान का खेती से मोहभंग करके बागडोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में दिए जाने की सुनियोजित चाल है | रमेश चौरसिया और राकेश पांडे के मध्य का संवाद भविष्य की इसी संम्भावना की ओर इशारा करता है | रमेश कहता है –
“किसान धीरे-धीरे मजदूर होता जा रहा है इस देश में | उसकी जमीनें जा रही हैं | कुछ दिनों बाद इस देश में मल्टीनेशनल कंपनियां ही खेती करेंगी सारी | और देखियेगा उस समय कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं चलेगा | जो कंपनियां चाहेंगी वही मूल्य रहेगा |”
पंकज सुबीर – अकाल में उत्सव
अकाल में उत्सव उपन्यास का प्रमुख पात्र रामप्रसाद इस भ्रष्ट मशीनरी का शिकार होता है | बैंक मेनेजर और कुछ दलाल उसकी जमीन पर पहले किसान क्रेडिट कार्ड बनवाते हैं और फिर उस पर तीस हजार का लोंन उठा लेते हैं | रामप्रसाद को इस धोखाधड़ी का पता तब चलता है जब उसे पटवारी से रेवेन्यु रिकवरी सर्टिफिकेट मिलता है | बैंक में जाकर पता चलता है कि फोटो और अंगूठा किसी और का लगा हुआ है | इसकी शिकायत लेकर वह कलेक्टर श्रीराम परिहार के पास भी जाता है | चूँकि रामप्रसाद का गाँव मुख्यमंत्री के चुनावी क्षेत्र में आता था, अतः वह उसकी शिकायत को सुनते है और उसे शिकायत के निवारण का आश्वासन देकर वापस भेज देते हैं | उसके जाने के बाद वे किसानों के प्रति अपनी ओछी सोच का परिचय देते हुए कहते हैं-
“देखा…? मैं नहीं कह रहा था अभी कि हिंदुस्तान के किसान से लालची कोई नहीं होता | भर पेट खाया भी और उसके बाद बांधकर भी ले गया | इससे समझ सकते हो तुम इन किसानों की मानसिकता को |”
पंकज सुबीर – अकाल में उत्सव
इस समस्या के कारण रामप्रसाद भारी मानसिक संत्राश से गुजरने लगता है | इस उपन्यास में सरकारी मशीनरी की सम्वेदनहीनता का भी उदाहरण प्रस्तुत किया गया है | पूरे जिले के अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों की अनदेखी करते हुए पूरा तंत्र उत्सव को सफल बनाने में लगा हुआ था | ऐसे में ओलावृष्टि से नष्ट फसलों का नमूना हाथ में लिए किसानों का बड़ा दल कलेक्टर ऑफिस के बहार जमा होता है | इन किसानो के साथ रामप्रसाद भी शामिल रहता है | कहीं यह बड़ा मुद्दा न बन जाय, इस भय से श्रीराम परिहार राकेश पांडे को इस मामले को देखने के लिए भेजते हैं | पांडे सभी पटवारियों आदि से शिकायत लेने की बात करता है और सभी किसानों को आस्वशन देकर वापस भेज देता है | लोगों द्वारा लाये गये फसलों के नमूनों को वह मंडप सजाने के कार्य हेतु भेजकर स्वयं भी उत्सव में शामिल होने चला जाता है | दूसरे दिन जब पटवारी फसल के नुकसान का जायजा लेने पहुँचता है तब वह रामप्रसाद से रिश्वत की मांग करता है | अधिक मानसिक दबाव से रामप्रसाद अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है और बाद में आत्महत्या कर लेता है | उसकी मृत्यु का समाचार पाकर पूरा जिला प्रशासन, मीडिया आदि सभी मिलकर लीपापोती में जुट जाते हैं और पूरे देश की नजर में रामप्रसाद को मानसिक रूप से अस्थिर साबित कर देते है |
अकाल में उत्सव उपन्यास किसानों के जीवन से जुड़े संत्राश और उसमें सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक सभी की भूमिका को बड़े ही सीधे तौर पर उजागर किया है | चाहे धर्म के ठेकेदार हों या सत्ताधीस, या सूदखोर, सभी अपने हिस्से का खून चूस ही लेते हैं इन किसानों का | वास्तव में यह किसी एक रामप्रसाद की कहानी नहीं है, ऐसे कई रामप्रसाद हैं भारत में जो नित नई जुगत लगाते है अपनी जरूरतों को जोड़ने के लिए | और फिर एक दिन हताश हो आत्मसमर्पण कर देते हैं इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ |